Friday, 18 January 2019

शिशिर

शिशिरे स्वदंते वहितायः पवने प्रवाति!
(अर्थात् , शिशिर में ठंढी हवा बहती है, तो आग तापना मीठा लगता है)

धवल हुई दिशा-दिशा,
उज्जवल वसुंधरा,
अंबर एकाकार हुए,
कण-कण ओस भरा,
पात-पात हुए प्रौढ़,
टूट-टूट चहुँओर गिरा,
पतझड़ का इक बयार, शिशिर ले आया!

जीर्ण-शीर्ण सा काया,
फिर से है इठलाया,
पूर्णता, सरसता, रोचकता,
यौवन रस भर लाया,
रसयुक्त हुए पोर पोर,
खिली डार-डार कलियाँ,
नव-श्रृजन का श्रृंगार , शिशिर ले आया !

शीतल विसर्गकाल,
ठंढ कड़ाके की लाया,
घनेरा सा कोहरा,
संसृति को ढ़कने आया,
प्रस्फुटित हुई कली,
नव-सृजन करने चली,
नव-जीवन का विहान, शिशिर ले लाया!

कण-कण में स्पंदन,
फूलों पर भौरों का गुंजन,
कलियों में कंपन,
झूम रही वो बन-ठन,
ठंढी-ठंढ़ी छुअन,
चहुँ दिश छाया सम्मोहन,
मन-भावन ये निमंत्रण, शिशिर ले आया!

4 comments:

  1. बहुत खुबसुरत चित्रण है हाले मौसम का.
    ठीक हो न जाएँ 

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    1. आदरणीय रोहतास जी, शुक्रिया । आभार।

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  2. बहुत ही बेहतरीन रचना

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    1. सादर आभार आदरणीय अनुराधा जी। आज मन दुखी है। तकनीकी कारणों से सारी टिप्पणी विलुप्त हो गई हैं ।

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