रह गई है, अब भी बाकी,
इस दिल में,
एक तपिश सी साकी!
बेमेल से हैं, विचारों के मेले,
धर्म के, अनर्थक झमेले,
रक्तिम होते, ये अन्तहीन उन्माद,
थमते नहीं, झूठ के विवाद!
गुजारी हैैं सदियाँ,
इन विवादों के दरमियाँ,
रक्तरंजित होते, देखी हैं गलियााँ,
धर्म की आड़ में,
कट गए कितने ही गले,
विसंगति धर्म की,
लेकिन, कहाँ इतनी रक्त से धुले?
आज भी है बाकि,
इसमें, अधूरी प्यास खून की!
सो, रह गई है अब भी बाकी,
इस दिल में,
एक तपिश सी साकी!
लाशों के ढ़ेर पर, हैं हम खड़े,
धर्म के नाम, हैं हम लड़े,
है कुछ ठेकेदारों की ये साझेदारी,
अक्ल हमारी गई है मारी,
हैं बस वो ही प्यारे!
रक्त पीते हैं जो हमारे,
उनकी राजनीति, के ये खेेेल सारे
चलते हैं लाश से,
जिंदगानियों की सांस से,
साजिशें धर्म की,
लेकिन, हम कहाँ समझ सके!
है उनकी बातों में,
सड़ान्ध, गलते हुए लाशों की!
सो, रह गई है अब भी बाकी,
इस दिल में,
एक तपिश सी साकी!
खून के घूँट, यूँ पी लेता हूँ मैं,
जीने को, तो जीता हूँ मैं,
तर्कों-कुतर्कों, से होकर असहज,
करते हुए खुद को सहज,
उम्मीदों के सहारे!
सदियों, हैं हमने गुजारे,
काश! मिट जाते ऐसे धर्म सारे,
बांटते हैं जो दिलों को,
दिग्भ्रमित करते हैं हमको!
मानव धर्म की,
हम महज कल्पना ही कर सके!
नींद में ही देखे,
सपने! समरस समाज की!
सो, रह गई है अब भी बाकी,
इस दिल में,
एक तपिश सी साकी!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
इस दिल में,
एक तपिश सी साकी!
बेमेल से हैं, विचारों के मेले,
धर्म के, अनर्थक झमेले,
रक्तिम होते, ये अन्तहीन उन्माद,
थमते नहीं, झूठ के विवाद!
गुजारी हैैं सदियाँ,
इन विवादों के दरमियाँ,
रक्तरंजित होते, देखी हैं गलियााँ,
धर्म की आड़ में,
कट गए कितने ही गले,
विसंगति धर्म की,
लेकिन, कहाँ इतनी रक्त से धुले?
आज भी है बाकि,
इसमें, अधूरी प्यास खून की!
सो, रह गई है अब भी बाकी,
इस दिल में,
एक तपिश सी साकी!
लाशों के ढ़ेर पर, हैं हम खड़े,
धर्म के नाम, हैं हम लड़े,
है कुछ ठेकेदारों की ये साझेदारी,
अक्ल हमारी गई है मारी,
हैं बस वो ही प्यारे!
रक्त पीते हैं जो हमारे,
उनकी राजनीति, के ये खेेेल सारे
चलते हैं लाश से,
जिंदगानियों की सांस से,
साजिशें धर्म की,
लेकिन, हम कहाँ समझ सके!
है उनकी बातों में,
सड़ान्ध, गलते हुए लाशों की!
सो, रह गई है अब भी बाकी,
इस दिल में,
एक तपिश सी साकी!
खून के घूँट, यूँ पी लेता हूँ मैं,
जीने को, तो जीता हूँ मैं,
तर्कों-कुतर्कों, से होकर असहज,
करते हुए खुद को सहज,
उम्मीदों के सहारे!
सदियों, हैं हमने गुजारे,
काश! मिट जाते ऐसे धर्म सारे,
बांटते हैं जो दिलों को,
दिग्भ्रमित करते हैं हमको!
मानव धर्म की,
हम महज कल्पना ही कर सके!
नींद में ही देखे,
सपने! समरस समाज की!
सो, रह गई है अब भी बाकी,
इस दिल में,
एक तपिश सी साकी!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (30-08-2019) को "चार कदम की दूरी" (चर्चा अंक- 3443) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सादर नमन
Deleteवाहहह अद्भुत रचना 👌👌
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीया
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