निःशब्द कर मुझे, निरंतर ढ़ल रही थी!
निःस्तब्ध सी, वो रात!
निरुत्तर था, उसके हर सवाल पर मैं,
कह भी, कुछ न सका, उसके हाल पर मैं!
निःस्तब्ध, कर गई थी वो रात!
डाल कर, बस इक अंधेरी सी चादर,
तन्मयता से, निःस्तब्ध खामोशी पिरो कर!
रात को, भुला दी थी किसी ने!
वो ही जख्म अब, नासूर सा था बना,
दिन के उजाले से ही, मिले थे जख्म काले!
निरंतर, सिसकती रही थी रात!
दुबक कर, चीखते चिल्लाते निशाचर,
निर्जन तिमिर उस राह में, ना कोई रहवर!
पीड़ में ही, घुटती रही थी रात!
उफक पर, चाँद आया था उतर कर,
बस कुछ पल, वो तारे भी बने थे सहचर!
लेकिन, अधूरी सी थी वो साथ!
गुम हुए थे तारे, रात के सारे सहारे,
निशाचर सोने चले थे, कुछ पल शोर कर!
अकेली ही, जगती रही वो रात!
क्षितिज पर, भोर ने दी थी दस्तक,
उठकर नींद से, मै भी जागा था तब तक!
आप बीती, सुना गई थी रात!
निःशब्द कर मुझे, निरंतर ढ़ल रही थी!
निःस्तब्ध सी, वो रात!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
निःस्तब्ध सी, वो रात!
निरुत्तर था, उसके हर सवाल पर मैं,
कह भी, कुछ न सका, उसके हाल पर मैं!
निःस्तब्ध, कर गई थी वो रात!
डाल कर, बस इक अंधेरी सी चादर,
तन्मयता से, निःस्तब्ध खामोशी पिरो कर!
रात को, भुला दी थी किसी ने!
वो ही जख्म अब, नासूर सा था बना,
दिन के उजाले से ही, मिले थे जख्म काले!
निरंतर, सिसकती रही थी रात!
दुबक कर, चीखते चिल्लाते निशाचर,
निर्जन तिमिर उस राह में, ना कोई रहवर!
पीड़ में ही, घुटती रही थी रात!
उफक पर, चाँद आया था उतर कर,
बस कुछ पल, वो तारे भी बने थे सहचर!
लेकिन, अधूरी सी थी वो साथ!
गुम हुए थे तारे, रात के सारे सहारे,
निशाचर सोने चले थे, कुछ पल शोर कर!
अकेली ही, जगती रही वो रात!
क्षितिज पर, भोर ने दी थी दस्तक,
उठकर नींद से, मै भी जागा था तब तक!
आप बीती, सुना गई थी रात!
निःशब्द कर मुझे, निरंतर ढ़ल रही थी!
निःस्तब्ध सी, वो रात!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (02-08-2019) को "हरेला का त्यौहार" (चर्चा अंक- 3416) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय ।
Deleteबहुत शानदार आत्म मुग्ध करता एहसास।
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