Sunday, 18 August 2019

लकीरें

यूँ न उभरी होंगी लकीरें, इस जमी पर!

बंध गई होगी, पांव में जंजीर कोई,
चुभ गए होंगे, शब्द बन कर तीर कोई,
या उठ गई होगी, दबी सी पीड़ कोई,
खुद ही, कब बनी है लकीर कोई,
या भर गया है, विष ही फिज़ाओं में कोई!

यूँ न उभरी होंगी लकीरें, इस जमी पर!

फसे होंगे, सियासत की जाल में,
घिरे होंगे, अज्ञानता के अंधेरे ताल में,
मिटे होंगे, दुष्ट दुश्मनों की चाल में,
या लुटे होंगे, बेवशी के हाल में,
या भटक चुके होंगे, वो इन दिशाओं में!

यूँ न उभरी होंगी लकीरें, इस जमी पर!

मन बंटे होंगे, चली होंगी आंधियाँ,
तन जले होंगे और चली होंगी लाठियां,
घर जले होंगे, या चली होंगी गोलियाँ,
उजाड़े गए होंगे, यहाँ के आशियां,
या घुल गए होंगे, जहर हवाओं में यहाँ!

यूँ न उभरी होंगी लकीरें, इस जमी पर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

10 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (19-08-2019) को "ऊधौ कहियो जाय" (चर्चा अंक- 3429) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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    1. अपने मंच पर नियमित स्थान देने हेतु धन्यवाद आदरणीय

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  2. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 18 अगस्त 2019 को साझा की गई है........."सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद

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    1. अपने मंच पर स्थान देने हेतु धन्यवाद आदरणीया दीदी

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  3. वाह !बेहतरीन प्रस्तुति सर
    सादर

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  4. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन विराट व्यक्तित्व नेता जी की रहस्यगाथा : ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

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    1. अपने मंच पर स्थान देने हेतु धन्यवाद आदरणीय

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  5. बहुत खूब ...
    जमाने की कठोर सच्चाई को प्रखर शब्दों के माध्यम से व्यक्ति किया है ...
    सच है यूँ ही लकीरें नहीं उभरती ...

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