COVID 19: अविस्मरणीय संक्रमण के इस दौर में, कोरोना से खौफजदा जिन्दगियों की चलती फिरती लाशों के मध्य, जिन्दगी एक वीभत्स रूप ले चुकी है। हताशा में यहाँ-वहाँ भटकते लोग, अपनी कांधों पे अपनी ही जिन्दगी लिए, चेतनाशून्य हो चले हैं । मर्मान्तक है यह दौर। न आदि है, ना ही अंत है! हर घड़ी, शेष है बस, इक तलाश ....
सुसुप्त सी हो चली, चेतना की गली,
हर पहर, है वेदना की,
इक तलाश!
हर तरफ, खौफ के मध्य!
ढूंढती है, जिन्दगी को ही जिन्दगी!
शायद, बोझ सी हो चली, है ये जिन्दगी,
ढ़ो रहे, वो खुद, अपनी ही लाश,
जैसे, रह गई हो शेष,
इक तलाश!
सुसुप्त सी हो चली, चेतना की गली,
हर पहर, है वेदना की,
इक तलाश!
अजीब सा, इक मौन है!
जिन्दगी से, जिन्दगी ही, गौण है!
चल रहे वे अनवरत, लिए एक मौनव्रत,
पर, गूंजती है, उनकी सिसकियाँ!
उस आस में, है दबी,
इक तलाश!
सुसुप्त सी हो चली, चेतना की गली,
हर पहर, है वेदना की,
इक तलाश!
न आदि है, ना ही अंत है!
उन चेतनाओं में, सुसुप्त प्राण है,
उनकी कल्पनाओं में, इक अनुध्यान है,
उन वेदनाओं में, इक अजान है,
बची है, श्याम-श्वेत सी,
इक तलाश!
सुसुप्त सी हो चली, चेतना की गली,
हर पहर, है वेदना की,
इक तलाश!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 20 मई 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteहार्दिक आभार व धन्यवाद आदरणीय
Deleteसार्थक प्रस्तुति
ReplyDeleteहार्दिक आभार व धन्यवाद आदरणीय
Deleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 21.5.2020 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3708 में दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
ReplyDeleteधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
हार्दिक आभार व धन्यवाद आदरणीय
Deleteसुसुप्त सी हो चली, चेतना की गली,
ReplyDelete–सच में...
भयावह परिस्थितियों की सफल चित्रण
हार्दिक आभार व धन्यवाद आदरणीय
Deleteएकदम सही बात कही पुरुषोत्तम जी :
ReplyDeleteसुप्त सी हो चली, चेतना की गली,
हर पहर, है वेदना की,
इक तलाश!
हार्दिक आभार व धन्यवाद आदरणीय
Deleteबहुत सुंदर और सार्थक रचना
ReplyDeleteहार्दिक आभार व धन्यवाद आदरणीय
Deleteमार्मिक सृजन आदरणीय सर.
ReplyDeleteसादर.
हार्दिक आभार व धन्यवाद आदरणीय
Delete