जागी सी आँखों में, बिखरा सा इक स्वप्न है,
वो सच था? या इक भ्रम में हम हैं!
क्या वो, महज इक मिथ्या था?
सत्य नहीं, तो वो क्या था?
पूर्णाभास, इक एहसास देकर वो गुजरा था,
बोए थे उसने, गहरे जीवन का आभास,
कल्पित सी, उस गहराई में,
कंपित है जीवन मेरा,
ये सच है?
या इक भ्रम में हम हैं!
जागी सी आँखों में, बिखरा सा इक स्वप्न है,
वो सच था? या इक भ्रम में हम हैं!
सो, उठता हूँ, बस चल पड़ता हूँ!
चुनता हूँ, उन स्वप्नों को!
बुनता हूँ, टूटे-बिखरे से कंपित हर क्षण को,
भ्रम के बादल में, बुन लेता हूँ आकाश,
शायद, विस्मित इस क्षण में,
अंकित है, जीवन मेरा,
ये सच है?
या इक भ्रम में हम हैं!
जागी सी आँखों में, बिखरा सा इक स्वप्न है,
वो सच था? या इक भ्रम में हम हैं!
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
सुन्दर
ReplyDeleteसादर आभार
Deleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 23 सितंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीया
Deletebangla kobita
ReplyDeletebangla kobita
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👌👌👌
Deleteसशक्त रचना।
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय।
Deleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 24.9.2020 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी|
ReplyDeleteधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
सादर आभार आदरणीय
Deleteजी बहुत बढ़िया। अभिनंदन आपका।
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय
Deleteसुन्दर प्रस्तुति.
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय
Deleteवाकई एक भ्रम में ही जी रहे हैं हम, अब तो विज्ञान भी यही कहता है.
ReplyDeleteसम्भवतः आप पूर्णाभास और आभास लिखना चाहते थे,
सादर आभार आदरणीय
Deleteवाह बहुत सुंदर कविता
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय
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