वो चाँद चला, छलता, अपने ही पथ पर!
बोल भला, तू क्यूँ रुकता है?
ठहरा सा, क्या तकता है?
कोई जादूगरनी सी, है वो स्निग्ध चाँदनी,
अन्तः तक छू जाएगी,
यूँ छल जाएगी!
वो चाँद चला, छलता, अपने ही पथ पर!
कुछ कहता, वो भुन-भुन-भुन!
कर देता हूँ मैं, अन-सुन!
यथासंभव, टोकती है उसकी ज्योत्सना,
यथा-पूर्व जब रात ढ़ला,
यूँ कौन छला?
वो चाँद चला, छलता, अपने ही पथ पर!
दुग्ध सा काया, फिर भरमाया,
चकोर के, मन को भाया
पाकर स्निग्ध छटा, गगण है शरमाया,
महमाई फिर निशिगंधा,
छल है छाया!
वो चाँद चला, छलता, अपने ही पथ पर!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
बोल भला, तू क्यूँ रुकता है?
ठहरा सा, क्या तकता है?
कोई जादूगरनी सी, है वो स्निग्ध चाँदनी,
अन्तः तक छू जाएगी,
यूँ छल जाएगी!
वो चाँद चला, छलता, अपने ही पथ पर!
कुछ कहता, वो भुन-भुन-भुन!
कर देता हूँ मैं, अन-सुन!
यथासंभव, टोकती है उसकी ज्योत्सना,
यथा-पूर्व जब रात ढ़ला,
यूँ कौन छला?
वो चाँद चला, छलता, अपने ही पथ पर!
दुग्ध सा काया, फिर भरमाया,
चकोर के, मन को भाया
पाकर स्निग्ध छटा, गगण है शरमाया,
महमाई फिर निशिगंधा,
छल है छाया!
वो चाँद चला, छलता, अपने ही पथ पर!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 07 सितंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीय।
Deleteसुन्दर
ReplyDeleteआभारी हूँ आदरणीय।
Deleteकुछ कहता, वो भुन-भुन-भुन!
ReplyDeleteकर देता हूँ मैं, अन-सुन!
यथासंभव, टोकती है उसकी ज्योत्सना,
यथा-पूर्व जब रात ढ़ला,
यूँ कौन छला?
बहुत खूब,एक मधुर गीत जो मंत्रमुग्ध कर गया ,सादर नमन आपको
बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया कामिनी जी। आभार।
Deleteकोई जादूगरनी सी, है वो स्निग्ध चाँदनी,
ReplyDeleteअन्तः तक छू जाएगी,
यूँ छल जाएगी!
-अद्धभुत लेखन
आदरणीया विभा जी, आपकी प्रशंसा का पात्र बन सका, इस हेतु आभार।
Deleteवाह लाजबाव रचना
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीया भारती जी।
Deleteसभी रचनाएँ बेमिसाल हैं, उनमें एक प्रकृत प्रवाह है - - नमन सह।
ReplyDeleteसुखद अनुभूति। बहुत-बहुत धन्यवाद।
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