वो चाँद चला, छलता, अपने ही पथ पर!
बोल भला, तू क्यूँ रुकता है?
ठहरा सा, क्या तकता है?
कोई जादूगरनी सी, है वो स्निग्ध चाँदनी,
अन्तः तक छू जाएगी,
यूँ छल जाएगी!
वो चाँद चला, छलता, अपने ही पथ पर!
कुछ कहता, वो भुन-भुन-भुन!
कर देता हूँ मैं, अन-सुन!
यथासंभव, टोकती है उसकी ज्योत्सना,
यथा-पूर्व जब रात ढ़ला,
यूँ कौन छला?
वो चाँद चला, छलता, अपने ही पथ पर!
दुग्ध सा काया, फिर भरमाया,
चकोर के, मन को भाया
पाकर स्निग्ध छटा, गगण है शरमाया,
महमाई फिर निशिगंधा,
छल है छाया!
वो चाँद चला, छलता, अपने ही पथ पर!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
बोल भला, तू क्यूँ रुकता है?
ठहरा सा, क्या तकता है?
कोई जादूगरनी सी, है वो स्निग्ध चाँदनी,
अन्तः तक छू जाएगी,
यूँ छल जाएगी!
वो चाँद चला, छलता, अपने ही पथ पर!
कुछ कहता, वो भुन-भुन-भुन!
कर देता हूँ मैं, अन-सुन!
यथासंभव, टोकती है उसकी ज्योत्सना,
यथा-पूर्व जब रात ढ़ला,
यूँ कौन छला?
वो चाँद चला, छलता, अपने ही पथ पर!
दुग्ध सा काया, फिर भरमाया,
चकोर के, मन को भाया
पाकर स्निग्ध छटा, गगण है शरमाया,
महमाई फिर निशिगंधा,
छल है छाया!
वो चाँद चला, छलता, अपने ही पथ पर!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)