अब अपने से लगते हैं वो चुभते कांटे...
हरेक अंतराल,
हर घड़ी, पूछते मेरा हाल,
दर्द भरे, वही सवाल,
बिन मलाल!
अब अपने से लगते हैं वो चुभते कांटे...
उनकी चुभन,
वही, अन्तहीन इक लगन,
हर पल, बिन थकन,
वही छुअन!
अब अपने से लगते हैं वो चुभते कांटे...
जो, वो न हो,
ये मौसम, ये बारिशें न हों,
सब्रो आलम तो हो,
हम न हों!
अब अपने से लगते हैं वो चुभते कांटे...
क्यूं, उन्हें बांटें,
मीठी, दर्द की ये सौगातें,
तन्हा डूबती ये रातें,
यूं क्यूं छांटें!
अब अपने से लगते हैं वो चुभते कांटे...
(सर्वाधिकार सुरक्षित)