ऐ एकाकी मन, पाले क्यूं, उलझन!
पलकों में, बूटे उग आए थे,
शायद, मेरी ख्वाबों के, वो सरमाए थे!
और, नैन तले, छाए काले घन,
अंतः, मेघों सा गर्जन,
लिए अधीर मन!
ऐ एकाकी मन, पाले क्यूं, उलझन!
सोचे, अब, कैसे ये ख्वाब!
कैसा ये पागलपन, पाले क्यूं, उलझन!
टूट जाते, सावन में ही ये घन,
बिखर जाते हैं, तन,
क्यूं दीवानापन!
ऐ एकाकी मन, पाले क्यूं, उलझन!
क्षण-भंगुर, मेघों के साए,
क्षण भर ही, भाएंगी इनकी क्षणिकाएं,
मुड़ जाएंगे, जाने किस ओर,
ढूंढोगे, कल ये शोर,
फिरोगे, वन-वन!
ऐ एकाकी मन, पाले क्यूं, उलझन!
फिर से ये बूटे, ना उगने दो,
फिर, ख्वाबों के सरमाए, ना बनने दो,
नभ पर, घन आएं, बरस जाएं,
ना ही, ख्वाब दिखाएं,
ना ही अपनापन!
ऐ एकाकी मन, पाले क्यूं, उलझन!
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" मंगलवार 08 नवम्बर 2022 को साझा की गयी है....
ReplyDeleteपाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
आभार आदरणीया दी
Deleteसादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (8-11-22} को "कार्तिक पूर्णिमा-मेला बहुत विशाल" (चर्चा अंक-4606) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
बहुत बहुत धन्यवाद
Deleteवाह! भावपूर्ण
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय
Deleteबहुत सुंदर।
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद आदरणीया
Deleteबहुत ही सुन्दर सार्थक और भावपूर्ण रचना
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद आदरणीया
Deleteबेहतरीन रचना
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद आदरणीया
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