वही इक झरोखा...
मेरे काम का!
उभर आती है जो, कितनी सायों के संग,
कभी संदली, कभी गोधूलि,
रातें कभी, बूंदों से धुली,
कहीं झांकती, कली कोई अधखुली,
हर रंग, जिंदगी के नाम का!
वही इक झरोखा...
मेरे काम का!
समेट कर, सिलवटों में, वक्त की करवटें,
यूं लपेटे, कोहरों की चादरें,
वो तो, बस पुकारा करे,
झांकते वो उधर, लिए पलकें खुली,
वो ही सहारा, इक शाम का!
वही इक झरोखा...
मेरे काम का!
वो तो, कैद कर गया, बस परिदृश्य सारे,
बे-आस से वो, दोनों किनारे,
उन, रिक्तियों में पुकारे,
क्षणभंगुर क्षण ये, जिधर थी ढ़ली,
बिखरा, वो सागर जाम का!
वही इक झरोखा...
मेरे काम का!
पर, वो करता कहां अंत की परिकल्पना,
जीवन्त सी, उसकी साधना,
अलकों में, नई अल्पना,
नित, फलक के, नव-रंगों में ढ़ली,
परवाह कहां, उसे शाम का!
वही इक झरोखा...
मेरे काम का!
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
अतिसुंदर
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीया
Deleteबहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीया मीना जी
Deleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 17 नवंबर 2022 को लिंक की जाएगी ....
ReplyDeletehttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
!
बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय
Deleteनमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा गुरुवार 17 नवंबर 2022 को 'वो ही कुर्सी,वो ही घर...' (चर्चा अंक 4614) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय
ReplyDeleteवाह!पुरुषोत्तम जी ,बहुत खूब!!
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद आदरणीया शुभा जी
Deleteजीवन को खालीपन न घेर ले, इसलिए बहुत जरुरी ही एक खुले झरोखे का होना.... . बहुत खूब!
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद आदरणीया कविता जी
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