जो सर्दियों में, खिली धूप थी गुनगुनी,
वो आप थे!
तभी तो, वो एहसास था,
सर्द सा वो हवा भी, बदहवास था,
कर सका, ना असर,
गर्म सांसों पर,
सह पे जिसकी, करता रहा अनसुनी,
वो आप थे!
जो सर्दियों में, खिली धूप थी गुनगुनी,
वो आप थे!
खुलने लगी, बंद कलियां,
प्रखर होने लगी, गेहूं की बलियां,
वो, भीनी सी, खुश्बू,
हर सांस पर,
बस करती रही, अपनी ही मनमानी,
वो आप थे!
जो सर्दियों में, खिली धूप थी गुनगुनी,
वो आप थे!
सर्द से, वो पल भूलकर,
गुनगुनी, उन्हीं बातों में घुलकर,
गुम से, हो चले हम,
जाने किधर!
अब भी, धुन पे जिसकी रमाता धुनी,
वो आप थे!
जो सर्दियों में, खिली धूप थी गुनगुनी,
वो आप थे!
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
नमस्ते.....
ReplyDeleteआप को बताते हुए हर्ष हो रहा है......
आप की ये रचना लिंक की गयी है......
दिनांक 26/03/2023 को.......
पांच लिंकों का आनंद पर....
आप भी अवश्य पधारें....
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (26-03-2023) को "चैत्र नवरात्र" (चर्चा अंक 4650) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
कितना खूबसूरत शब्दों का समन्वय
ReplyDeleteसजीव चित्रण
शुभकामनाएँ
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteवाह!! लाजवाब रचना 👌👌
ReplyDeleteजो सर्दियों में, खिली धूप थी गुनगुनी,
ReplyDeleteवो आप थे! सुंदर ।
सर्दी की धूप के साथ यादों की गर्मी की गहन अनुभूतियों को शब्दों में संजोती भावपूर्ण अभिव्यक्ति के लिए बधाई और शुभकामनाएं पुरुषोत्तम जी।अच्छा लगा आज बहुत समय बाद आपके ब्लॉग का भ्रमण करके।🙏
ReplyDeleteकोमल भावनाओं से ओतप्रोत सुंदर सृजन
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