हुए सदियों, पर लगता है,
बस, अभी-अभी तो, लौटा हूँ...
उन गलियों से!
पहचाने से हैं, रस्ते उन गलियों के,
रिश्ते उन, रस्तों से,
करीबी हैं कितने ...
खबर है, जबकि मुझको,
फिर न पुकारेंगी,
वे राहें मुझे,
अपरिमित हो चली वो दूरियां,
अब कहां नजदीकियां?
उन गलियों से!
हुए सदियों, पर लगता है,
बस, अभी-अभी तो, लौटा हूँ...
उन गलियों से!
बसी है, इक खुश्बू अब तक इधर,
धड़कनों की, जुंबिश,
सांसों की तपिश...
उन एहसासों की, दबिश,
उन जज्बातों की,
इक खलिश,
वे अपरिचित से लगे ही कब,
जाने, कैसा ये परिचय?
उन गलियों से!
हुए सदियों, पर लगता है,
बस, अभी-अभी तो, लौटा हूँ...
उन गलियों से!
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
अतिसुन्दर हमेशा की तरह उम्दा रचना बहुत बधाई आदरणीय
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" रविवार 07 जनवरी 2024 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !
ReplyDeleteसुंदर ! बहुत कुछ पीछे छूट जाता है समय के साथ।
ReplyDeleteअतिसुन्दर कविता, ईश्वर आपको हंमेशा खुश रखे,
ReplyDeleteस्वास्थ्य मस्त रखे,
और सभी दुखों से दूर रखे,
यहि प्रार्थना है मेरी भगवान से !!
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteसुन्दर
ReplyDeleteवाह! पुरुषोत्तम जी , बहुत खूबसूरत सृजन!
ReplyDeleteबहुत उम्दा रचना।
ReplyDeleteखूबसूरत कविता।
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