Wednesday, 7 February 2024

और आज

और आज, फिर, नीरवता है फैली!

भुलाए न भूले, वे छलावे, वे झूले,
झूठे, बुलावे, वो कल के,
सांझ का आंगना,
हँसते, तारों की टोली!

और आज, फिर, नीरवता है फैली!

रंगीन वो क्षितिज, कैसी गई छली!
उसी दिन की तरह, फिर,
फैले हैं रंग सारे,
पर, फीकी सी है होली!

और आज, फिर, नीरवता है फैली!

सोए वे ही लम्हे, फिर उठे हैं जाग,
फिर, लौटा वो ही मौसम,
जागे वे शबनम,
बरसी बूंदें फिर नसीली!

और आज, फिर, नीरवता है फैली!

फिर आज, भीग जाएंगी, वो राहें,
खुल ही जाएंगी, दो बाहें,
सजाएंगी सपने,
वे दो पलकें अधखुली!

और आज, फिर, नीरवता है फैली!

5 comments:

  1. फिर आज, भीग जाएंगी, वो राहें,
    खुल ही जाएंगी, दो बाहें,
    सजाएंगी सपने,
    वे दो पलकें अधखुली!

    लाजवाब सृजन आदरणीय 🙏

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  2. कभी-कभी कुछ पल ऐसे भी आते है जिसमें नीरवता के भाव हावी होते हैं।
    भावपूर्ण रचना सर।
    सादर।
    -----
    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार ९ फरवरी २०२४ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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  3. कहीं ख़ुशी कहीं ग़म, यही तो जीवन है

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