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Sunday, 2 January 2022

अनुगूंज

रह-रह कर, झकझोरती रही, इक अनुगूंज,
लौटकर, आती रही इक प्रतिध्वनि, 
शायद, जीवित थी, कहीं एक प्रत्याशा,
किसी के, पुनः अनुगमन की आशा!

पर कैसा, ये गूंजन! कैसा, ह्रदय का कंपन,
असह्य हो रहा, क्यूं ये अनुगूंजन?
शायद, टूट रही थी, झूठी सी प्रत्याशा,
किसी कंपित मन की थी वो भाषा!

युग बीते, वर्षो बीते, अंबर रीते, वो न आए,
हर आहट पर, इक मन, भरमाए,
रूठा, उससे ही, उसका भाग्य जरा सा,
इक बदली, सावन में ज्यूं ठहरा सा!

यूं, बीच भंवर, बहती नैय्या, ना छोड़े कोई,
यूं, विश्वास, कभी, ना तोड़े कोई,
होता है, भंगूर बड़ा ही, मन का शीशा,
पल में चकनाचूर होता है ये शीशा!

टूटकर, इक पर्वत को भी, ढ़हता सा पाया,
जब, अंतःकरण जरा डगमगाया,
असंख्य खंड, कर दे, कम्पन थोड़ा सा,
दे दर्द असह्य, ये चुभन हल्का सा!

पल-पल, झकझोरती उसकी ही अनुगूंज,
पग-पग, टोकती वही प्रतिध्वनि,
सुन ओ पथिक, जरा समझ वो भाषा,
कर दे पूरी, उस मन की प्रत्याशा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)