Showing posts with label अन्तर्मुखी. Show all posts
Showing posts with label अन्तर्मुखी. Show all posts

Monday, 9 January 2017

नादान बेचारी

सोच रही वो बेचारी, आखिर भूल हुई क्या मेरी?

यूँ ही घर से निकल गया था वो अन्तर्मुखी,
दर्द कोई असह्य सी, सुलग रही थी उस मन में छुपी!
बिंध चुका था शायद, निश्छल सा वो अन्तर्मन,
अप्रत्याशित सी कोई बात, कर गई थी उसे दुखी!

स्नेह भरा दामन, फैलाया तो था उस अबला ने,
रखकर कांधे पे सर, हाथों से सहलाया भी था उसने,
नादान मगर पढ पाई ना, उसके अन्तर्मन की बातें,
दामन में छोड़ गया वो, बस विरहा की सौगातें!

मन में चोट लगे जो, वो घाव बड़ी दुखदायी,
तन सहलाते मिटे न पीड़ा, नादान समझ ना पाई,
अंजाने में भूल हुई क्या, बस वो जान न पाई,
तोड़कर विश्वास क्यूँ छोड़ चला वो सौदाई!

वो अन्तःमुखी, बाँट सका न पीड़ा कहकर,
निकल पड़ा घर से, मन में ही कोई जख्म भरकर,
राज रही गहराती ही, कोहरे सी खामोशी लेकर,
अब बाट जोहती वो, रुकी सी साँसे लेकर!!