आरम्भ नही था जिसका कोई,
अन्त जिसकी कोई लिखी गई नहीं,
कल्पना के कंठ में ही रुँधी रही,
जिसे मैं परित्यक्त भी कह सकता नहीं।
चुभ रही है मन में जो, वही इक पीर पुरानी हूँ मैं!
व्यक्त इसे कही करता कोई,
काश! मिल जाता इसे प्रारब्ध कोई,
बींध लेता कोई मन के काँटे कहीं,
असह्य सी ये पीर पुरानी कभी होती नही।
वक्त में धुमिल हुई जो, वही भूली निशानी हूँ मैं!
साहिल पे लिखी गजल कोई,
या रेत में ढली खूबसूरत महल कोई,
बहाकर मौजें लहर की ले चली,
भूली सी वो दास्तां जो अब यादों में नहीं।
व्यक्त फिर से ना हुई जो, वही इक कहानी हूँ मैं!