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Wednesday, 25 March 2020

एकान्त

चल चुके दूर तक, प्रगति की राह पर!
रुको, थक चुके हो अब तुम,
चल भी ना सकोगे, 
चाह कर!

उस कल्पवृक्ष की, कल्पना में,
बीज, विष-वृक्ष के, खुद तुमने ही बोए,
थी कुछ कमी, तेरी साधना में,
या कहीं, तुम थे खोए!
प्रगति की, इक अंधी दौर थी वो,
खूब दौड़े, तुम,
दिशा-हीन!
थक चुके हो, अब विष ही पी लो,
ठहरो,
देखो, रोकती है राहें,
विशाल, विष-वृक्ष की ये बाहें!
या फिर, चलो एकान्त में
शायद,
रुक भी ना सकोगे!
चाह कर!

तय किए, प्रगति के कितने ही चरण!
वो उत्थान था, या था पतन,
कह भी ना सकोगे,
चाह कर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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एकान्त (Listen Audio on You Tube)
https://youtu.be/hUwCtbv0Ao0

Wednesday, 5 June 2019

उत्कर्ष

उत्कर्ष में, शिखर को जब पा जाए जीवन,
तब भी याचक सा, फैल जाए दामन!
वही उत्थान है, वही है चरम!

चरम प्राप्ति पर जब-जब होते हैं हम,
संग-संग, जागृत हो उठते हैं अहम के फन,
प्रवेश करती हैं, चारित्रिक वर्जनाएं,
प्रभावी होता है, नैतिक पतन,
खोता है पल-पल संयम,
स्व-मूल्यांकन के, ये ही होते हैं क्षण!

आधिपत्य होता है, जब अंधियारों का,
व्याप लेती है, क्षण भर में वो विशाल धरा,
चरम को, पाती है रातों की नीरवता,
पर, खुद सहम जाती है रात,
प्रभा-किरणों की चाह में,
किसी याचक सा, फैलाती है दामन!

सूरज भी ढ़लता है, शिखर के पश्चात,
सांझ देकर ही जाती है, अंततः हर प्रभात,
उजालों की भी, होती है इक परिधि,
प्रभावी हो, निकलती है रात,
क्षीण हो जाते हैं ये दिन,
याचक बन, फैलाती है वो दामन !

निश्चित होना है, हर उत्थान का पतन,
सर्वथा ये हैं, इस जीवन के ही दो चरण,
अहम कैसा, जब मिली सफलता,
पतन हुआ, तो क्या है गम,
खोएं पल भर ना संयम,
स्व-मूल्यांकन के, होते हैं ये क्षण!

उत्कर्ष में, शिखर को जब पा जाए जीवन,
तब भी याचक सा, फैल जाए दामन!
वही उत्थान है, वही है चरम!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Monday, 28 December 2015

सन्निकट अवसान

अवसान सन्निकट जीवन के,
छाए स्वत: हो रहे अब दीर्घ,
वेग-प्रवाह धीमे होते रक्त के,
सांसें स्वतः हो रहे अब प्रदीर्घ।

बीत रहा प्रहर निर्बाध अधीर,
अभिलाशाएँ हृदय की बहाती नीर,
सांझ जीवन की आती अकुलाई,
वश में कर सकै ऐसा कौन प्रवीर।

उत्थान-पतन और विहान-अवसान,
महाश्रृष्टि रचयिता के हैं दो प्रमाण,
जीर्ण होकर ही दे पाता ये नव जीवन,
कर्म अडिग कर, बना अपनी पहचान।

Saturday, 26 December 2015

आरोह-ठहराव-अवरोह

आरोह अगर सत्य है तो, अवरोह भी अवश्यमभावी,
उत्थान अगर सम्मुख है तो, पतन भी प्रशस्त प्रभावी,
जीवन चेतन सत्य है तो, मृत्यु भी है शास्वत भावी,
समुन्दर मे है ज्वार प्रबल तो, भाटा भी निरंतर हावी।
आरोह है जीवन के उत्थान की तैयारी.........
जैसे खेत मे बीजों का अंकुरित होना,
खिलते कलियों-फूलों का इठलाना,
काली घटाओं का नभ पर छा जाना,
मदमाते सावन का झूम के बरस जाना,
समुद्र में अल्हर ज्वार का उठ जाना,
सुबह के लाली की आँखों का शरमाना,
प्रात: काल पंछियों का चहचहाना,
नव दुलहन का पूर्ण श्रृंगार कर जीवन में..........
..............आशाओं के नव दीप जलाने की बारी।
अवरोह है जीवन के ढलने की बारी.........
जैसे खेतों के बीजों का पौध बन फल जाना,
कलियों-फूलों के चेहरों का मुरझाना,
काली घटाओं का मद्धिम पड़ जाना,
सावन की मदिरा का सूखकर थम जाना,
समुद्री ज्वार का भाटा बन लौट जाना,
सूरज की किरणों का तेज निस्तेज पड़ जाना,
पंछियों का थककर वापस घर लौट आना,
दुल्हन का श्रृंगार जीवन भट्ठी में झौंक.........
............संध्या प्रहर मद्धिम दीप जलाने की तैयारी।
पर आरोह अवरोह के पलों के मध्य,
                  आता है पल ईक ठहराव का भी,
कुछ अंतराल के लिए ही सही पर,
                  दे जाता है इनको अल्पविराम भी,
ठहराव ही तो क्षण हैं, दायित्व पूरा कर जाने को,
मानव से मानव भावना की, गठजोर कर जाने को,
संसार की सारी खुशियाँ, दामन में समेट ले जाने को,
उपलब्धियों की सार्थकता, अर्थपूर्ण कर जाने को,
अवरोह बेला उन्मादरहित, अनुकरणीय बना जाने को!
जैसे सा, रे, ग, म, प, ध, नी, सा,
                 सा, नी, ध, प, म, ग, रे, सा के मध्य,
सा - है ठहराव, अल्पविराम,सम की स्थिति,
                सुर नही सध सकते बिन इनके पूर्ण।
सम है तो निर्माण है संभव,
                         वर्ना है विध्वंश की बारी !!!!!!!!!!