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Wednesday, 25 March 2020

एकान्त

चल चुके दूर तक, प्रगति की राह पर!
रुको, थक चुके हो अब तुम,
चल भी ना सकोगे, 
चाह कर!

उस कल्पवृक्ष की, कल्पना में,
बीज, विष-वृक्ष के, खुद तुमने ही बोए,
थी कुछ कमी, तेरी साधना में,
या कहीं, तुम थे खोए!
प्रगति की, इक अंधी दौर थी वो,
खूब दौड़े, तुम,
दिशा-हीन!
थक चुके हो, अब विष ही पी लो,
ठहरो,
देखो, रोकती है राहें,
विशाल, विष-वृक्ष की ये बाहें!
या फिर, चलो एकान्त में
शायद,
रुक भी ना सकोगे!
चाह कर!

तय किए, प्रगति के कितने ही चरण!
वो उत्थान था, या था पतन,
कह भी ना सकोगे,
चाह कर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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एकान्त (Listen Audio on You Tube)
https://youtu.be/hUwCtbv0Ao0