क्युॅकि उस नदी ने अब राह बदल ली है अपनी.....
वो दूर घाटी, जहाॅ कभी बहती थी इक नदी,
वो नदी की तलहटी, जहाॅ भीगते थे पत्थर के तन भी,
वो गुमशुम सी वादी, जहाॅ कोलाहल थे कभी,
सन्नाटा सा अब पसरा है हर तरफ वहीं,
असंख्य सूखे पत्थर के बीच सूखा है वो घाटी भी।
क्युॅकि उस नदी ने अब राह बदल ली है अपनी.....
घास के फूल उग आए हैं अब धीरे से वहीं,
पत्थर के तन पर निखरी है अनदेखी कोई कारीगरी,
प्रकृति ने बिछाई है मखमली सी चादर अपनी,
गूंजी है कूक कोयल की, हॅस रही हरियाली,
फूटे हैं आशा के स्वर, गाने लगी अब वो घाटी भी।
क्युॅकि उस नदी ने अब राह बदल ली है अपनी.....
वो दूर घाटी, जहाॅ कभी बहती थी इक नदी,
वो नदी की तलहटी, जहाॅ भीगते थे पत्थर के तन भी,
वो गुमशुम सी वादी, जहाॅ कोलाहल थे कभी,
सन्नाटा सा अब पसरा है हर तरफ वहीं,
असंख्य सूखे पत्थर के बीच सूखा है वो घाटी भी।
क्युॅकि उस नदी ने अब राह बदल ली है अपनी.....
घास के फूल उग आए हैं अब धीरे से वहीं,
पत्थर के तन पर निखरी है अनदेखी कोई कारीगरी,
प्रकृति ने बिछाई है मखमली सी चादर अपनी,
गूंजी है कूक कोयल की, हॅस रही हरियाली,
फूटे हैं आशा के स्वर, गाने लगी अब वो घाटी भी।
क्युॅकि उस नदी ने अब राह बदल ली है अपनी.....