काश!
गहराता न ये अन्तराल,
इतने दूर न होते,
ये जमीं
ये आकाश!
मिलन!
युगों से बना सपना,
मध्य, अपरिमित काल!
इक अन्तरजाल,
एक अन्तराल!
दूर कहीं,
बस कहने को,
एक अपना!
सत्य!
पर इक छल जैसे,
ठोस, कोई जल जैसे!
आकार निराकार,
मूर्त-अमूर्त,
दोनों ही,
समक्ष से रहे,
भ्रम जैसे!
कशिश!
मचलती सी जुंबिश,
लिए जाती हो, कहीं दूर!
क्षितिज की ओर,
प्रारब्ध या अंत,
एक छद्म,
पलते अन्तराल,
यूँ न काश!
काश!
गहराता न ये अन्तराल,
इतने दूर न होते,
ये जमीं
ये आकाश!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
गहराता न ये अन्तराल,
इतने दूर न होते,
ये जमीं
ये आकाश!
मिलन!
युगों से बना सपना,
मध्य, अपरिमित काल!
इक अन्तरजाल,
एक अन्तराल!
दूर कहीं,
बस कहने को,
एक अपना!
सत्य!
पर इक छल जैसे,
ठोस, कोई जल जैसे!
आकार निराकार,
मूर्त-अमूर्त,
दोनों ही,
समक्ष से रहे,
भ्रम जैसे!
कशिश!
मचलती सी जुंबिश,
लिए जाती हो, कहीं दूर!
क्षितिज की ओर,
प्रारब्ध या अंत,
एक छद्म,
पलते अन्तराल,
यूँ न काश!
काश!
गहराता न ये अन्तराल,
इतने दूर न होते,
ये जमीं
ये आकाश!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)