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Sunday, 13 June 2021

झिझक

झिझक, संकोच, हिचकिचाहट!
काश, दुविधाओं के ये, बादल न होते!
इन्हीं स्मृति के दायरों में, हम तुम्हें रोक लेते,
यूँ न, धुँध में, तुम कहीं खोते!

किस मोड़, जाने मुड़ गईं राहें!
विवश, न जाने, किस ओर, हम चले!
दरमियाँ, वक्त के निशान, फासले कम न थे,
उस धुँध में, कहाँ, तुझे ढूंढ़ते!

तुम तक, ये शायद, पहुँच जाएँ!
शब्द में पिरोई, झिझकती संवेदनाएँ,
कह जाएँ वो, जो न कह सके कहते-कहते!
रोक लें तुझे, यूँ चलते-चलते!

ओ मेरी, स्मृति के सुमधुर क्षण!
बे-झिझक खनक, सुरीली याद संग,
स्मृतियों के, इन दायरों में, आ रोक ले उन्हें,
यूँ न खो जाने दे, धुँध में उन्हें!

झिझक, संकोच, हिचकिचाहट!
काश, झिझक के, दुरूह पल न होते,
उन्हीं स्मृति के दायरों में, हम तुम्हें रोक लेते,
यूँ न, धुँध में, तुम कहीं खोते!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 22 March 2020

वो नदी सी

वो, नदी सी!

बंधी, दो किनारों से,
कहती रही, उच्छृंखल तेज धारों से,
हो मेरे, श्रृंगार तुम ही,
ना, कभी कम,
तुम, ये धार करना, 
उमर भर, साथ बहना,
संग-संग,
बहूंगी, प्रवाह बन!

रही, उन दायरों में,
उलझी, बहावों के अनमने सुरों में,
चली संग, सफर पर,
रत, अनवरत,
अल्हड़, नादान सी,
दायरों में, गुमनाम सी,
सतत्  ,
बहती, अंजान बन!

थकी, थी धार अब,
सिमटना था, उसे उन समुन्दरों में,
सहमी थी, नदी अब,
गुम, वो धारे,
खो, चुके थे किनारे,
विस्तृत, हो चले थे दायरे,
चुप सी हुई,
मिलकर, सागरों में!

वो, नदी सी!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 14 September 2018

दायरा

ये अब किन दायरों में सिमट गए हो तुम...

छोड़ कर बाबुल का आंगन,
इक दहलीज ही तो बस लांघी थी तुमने!
आशा के फूल खिले थे मन में,
नैनों में थे आने वाले कल के सपने,
उद्विग्नता मन में थी कहीं,
विस्तृत आकाश था दामन में तुम्हारे!

ये अब किन दायरों में सिमट गए हो तुम...

कितने चंचल थे तुम्हारे नयन!
फूट पड़तीं थी जिनसे आशा की किरण,
उन्माद था रक्त की शिराओं में,
रगों में कूट-कूटकर भरा था जोश,
उच्छृंखलता थी यौवन की,
जीवन करता था कलरव साथ तुम्हारे!

ये अब किन दायरों में सिमट गए हो तुम...

कुंठित है क्यूँ मन का आंगन?
संकुचित हुए क्यूँ सोच के विस्तृत दायरे?
क्यूँ कैद हुए तुम चार दिवारों में?
साँसों में हरपल तुम्हारे विषाद कैसा?
घिरे हो क्यूँ अवसाद में तुम?
क्यूँ है हजार अंकुश जीवन पे तुम्हारे!

ये अब किन दायरों में सिमट गए हो तुम...