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Saturday, 12 March 2022

समय से परे

गहन अनुभूतियों ने, हौले से सहलाया था,
न जाने, कौन यहां आया था!

किसकी परछाईं थी, जो दबे पांव आई थी!
चुप सी बातों में, कैसी गहराई थी?
जैसे, वियावान में, गूंज कोई लहराया था,
न जाने, कौन यहां आया था!

संकोचवश, वो शायद कुछ कह ना पाए हों!
वो, दो पंखुड़ियां, खुल ना पाए हों!
अनियंत्रित पग ही, उन्हें खींच लाया था,
न जाने, कौन यहां आया था!

अक्सर, उसकी ही बातें, अब करता है मन,
बिन मौसम, कैसा छाया है ये घन!
पतझड़ में, डाली फूलों से भर आया था,
न जाने, कौन यहां आया था! 

भ्रम मेरा ही होगा, सत्य ये हो नहीं सकता!
नहीं एक भी कारण, आकर्षण का,
शायद, बावरे इस मन ने ही भरमाया था, 
न जाने, कौन यहां आया था!

पर हूँ वहीं, अब भी, लिए वही अनुभूतियां,
पल सारे, अब भी, कंपित हैं जहां,
सीमाओं से परे, समय जिधर लाया था,
न जाने, कौन यहां आया था!

गहन अनुभूतियों नें, हौले से सहलाया था,
न जाने, कौन यहां आया था!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 13 June 2021

झिझक

झिझक, संकोच, हिचकिचाहट!
काश, दुविधाओं के ये, बादल न होते!
इन्हीं स्मृति के दायरों में, हम तुम्हें रोक लेते,
यूँ न, धुँध में, तुम कहीं खोते!

किस मोड़, जाने मुड़ गईं राहें!
विवश, न जाने, किस ओर, हम चले!
दरमियाँ, वक्त के निशान, फासले कम न थे,
उस धुँध में, कहाँ, तुझे ढूंढ़ते!

तुम तक, ये शायद, पहुँच जाएँ!
शब्द में पिरोई, झिझकती संवेदनाएँ,
कह जाएँ वो, जो न कह सके कहते-कहते!
रोक लें तुझे, यूँ चलते-चलते!

ओ मेरी, स्मृति के सुमधुर क्षण!
बे-झिझक खनक, सुरीली याद संग,
स्मृतियों के, इन दायरों में, आ रोक ले उन्हें,
यूँ न खो जाने दे, धुँध में उन्हें!

झिझक, संकोच, हिचकिचाहट!
काश, झिझक के, दुरूह पल न होते,
उन्हीं स्मृति के दायरों में, हम तुम्हें रोक लेते,
यूँ न, धुँध में, तुम कहीं खोते!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)