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Wednesday, 3 February 2016

जीवन मृत्यु

इक मृत्यु जीवन पर इतना भारी क्युँ?
 साथ छूटा बस इक देह का,
 फिर उस देव का देवत्व विलीन क्युँ?

सजल उस देव के नैन आज क्युँ?
भटक रहा उसका मन क्युँ? 
विकल हुए हैं देव के प्राण क्युँ?
अविरल उन नैनों मे अश्रुधार क्युँ?

निज शरीर ही तो त्यागा है उस आराधिनी ने!
साथ उसके अब भी वो उस मंदिर में,
मन मे वो, यादों की हर क्षण में वो,
प्राण मे वों, अश्रु की अनवरत धार मे वो,
फिर देव उसका उदास क्युँ?

इक मृत्यु जीवन पर इतना भारी क्युँ?
 साथ छूटा बस इक देह का,
 फिर उस देव का देवत्व विलीन क्युँ?

उस देव के मंदिर मे पसरा सन्नाटा क्युँ?
पूजा के फूल मुरझाए क्युँ?
घंटो की टनटन संगीत गुम क्युँ?
दिए की बाती गुमसुम चुप क्युँ?

इक काया ही तो छोड़ा है उस पुजारण नें!
साथ अब भी मंदिर के फूलों मे वो,
दिए की हर जलती लौ मे वो,
घंटों की टनटन कोलाहल मे वो,
फिर उस देव का देवत्व विलीन क्युँ?

इक मृत्यु जीवन पर इतना भारी क्युँ?
साथ छूटा बस इक देह का,
 फिर उस देव का देवत्व विलीन क्युँ?