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Tuesday, 19 January 2021

झुर्रियाँ

बोझ सारे लिए, उभर आती हैं झुर्रियाँ,
ताकि, सांझ की गर्दिश तले, 
यादें ओझिल न हो, सांझ बोझिल न हो!

उम्र, दे ही जाती हैं आहट!
दिख ही जाती है, वक्त की गहरी बुनावट!
चेहरों की, दहलीज पर, 
उभर आती हैं.....
आड़ी-टेढ़ी, वक्र रेखाओं सी ये झुर्रियाँ,
सहेजे, अनन्त स्मृतियाँ!

वक्त, कब बदल ले करवट!
खुरदुरी स्मृति-पटल, पे पर जाए सिलवट!
चुनती हैं एक-एक कर,
उतार लाती हैं.....
जीवन्त भावों की, गहरी सी ये पट्टियाँ,
मृदुल छाँव सी, झुर्रियाँ!

घड़ी अवसान की, सन्निकट!
प्यासी जमीन पर, ज्यूँ लगी हो इक रहट!
इस, अनावृष्ट सांझ पर,
न्योछार देती हैं...
बारिश की, भीगी सी हल्की थपकियाँ, 
कृतज्ञ छाँव सी, झुर्रियाँ!

बोझ सारे लिए, उभर आती हैं झुर्रियाँ,
ताकि, सांझ की गर्दिश तले, 
यादें ओझिल न हो, सांझ बोझिल न हो!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 3 December 2020

विस्मृति

नहीं हो तुम कहीं, पर अभी तो, तुम थे यहीं!
स्मृतियाँ, बार-बार ले आती हैं तुम्हें,
और, मूर्त हो उठते हो तुम।

देखो ना! आज फिर, सजल हैं नैन तेरे,
बहते समीर संग, उड़ चले हैं, गेसूओं के घेरे,
चुप-चुप से हो, पर कंपकपाए से हैं अधर,
मौन हो जितने, हो उतने ही मुखर,
कितनी बातें, कह गए हो, कुछ कहे बिन,
चाहता हूँ कि अब रुक भी जाओ तुम!
रोकता हूँ कि अब न जाओ तुम!
विस्मृति के, इस, सूने से विस्तार में,
कहीं दूर, खो न जाओ तुम!
रोके, रुकते हो कहाँ तुम!

पर, तुम्हारी ही स्मृति, ले आती हैं तुम्हें,
दो नैन चंचल, फिर से, रिझाने आती हैं हमें,
खिल आते हो, कोई, अमर बेल बन कर,
बना लेते हो अपना, पास रहकर,
फिर, हो जाते हो धूमिल, कुछ कहे बिन,
उमर आते हो कभी, उन घटाओं संग,
सांझ की, धूमिल सी छटाओं संग,
विस्मृति के, उसी, सूने से विस्तार में,
वापस, सिमट जाते हो तुम!
रोके, रुकते हो कहाँ तुम!

नहीं हो तुम कहीं, पर अभी तो, तुम थे यहीं!
स्मृतियाँ, बार-बार ले आती हैं तुम्हें,
और, मूर्त हो उठते हो तुम।

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 2 December 2020

राजनीति

नीति-अनीति, यथार्थ या भ्रम,
कहते हैं किसे!
शायद, जायज है, सब इसमें,
राजनीति!
कहते है शायद जिसे!

यूँ तो, गैरों की सुनता हूँ,
अनुभव, चुनता हूँ,
अनुभूतियाँ, शब्दों को देकर,
कविता बुनता हूँ!
पर समझ सका न, इस भ्रम को,
बुनता रहा, इक अधेरबुन,
चुन पाया ना, यथार्थ,
शायद, यहाँ, होता सब परमार्थ!
यूँ इस भ्रम में,
सारे ज्ञान, हुए धूमिल,
पर, मिल पाया ना, इक बिस्मिल!
नीति कहाँ!
और, किधर अनीति!
सर्वथा,
इतर रही राजनीति!

अधिकार, कर्तव्यों पर हैं हावी,
संस्कार, ऐसे!
शायद, जायज है, सब इसमें,
राजनीति!
कहते है शायद जिसे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 29 October 2020

कदम

प्रारम्भ के, डगमग करते, वो दो कदम....
रहे वही निर्णायक!

चल पड़े जो, अज्ञात सी इक दिशा की ओर,
ले चले, न जाने किधर, किस ओर!
अनिश्चित से भविष्य के, विस्तार की ओर!
साथ चलता, इक सशंकित वर्तमान,
कंपित क्षण, अनिर्णीत, गतिमान!
इक स्वप्न, धूमिल, विद्यमान!

डगमग सी आशा, कभी गहराई सी निराशा,
लहरों सी उफनाती, कोई प्रत्याशा,
पग-पग, हिचकोले खाती, डोलती साहिल,
तलाशती, सुदूर कहीं अपनी मंजिल,
निस्तेज क्षितिज, लगती धूमिल!
लक्ष्य कहीं, लगती स्वप्निल!

जागृत, इक विश्वास, कि उठ खड़े होंगे हम, 
चुन लेंगे, निर्णायक दिशा ये कदम,
गढ़ लेंगे, स्वप्निल सा इक धूमिल आकाश,
अनन्त भविष्य, पा ही जाएगा अंत,
ज्यूँ, पतझड़, ले आता है बसन्त!
चिंगारी, हो उठती है ज्वलंत!

प्रारम्भ के, डगमग करते, वो दो कदम....
रहे वही निर्णायक!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 21 December 2018

दृष्टि-पथ

इस दृष्टि-पथ से, तुम हुए थे जब ओझल...

धूमिल सी हो चली थी संध्या,
थम गई थी, पागल झंझा,
शिथिल हो, झरने लगे थे रज कण,
शांत हो चले थे चंचल बादल....

इस दृष्टि-पथ से, तुम हुए थे जब ओझल...

सिमट चुकी थी रश्मि किरणें,
हत प्रभ थे, चुप थे विहग,
दिशाएं, हठात कर उठी थी किलोल,
दुष्कर प्रहर, थी बड़ी बोझिल....

इस दृष्टि-पथ से, तुम हुए थे जब ओझल...

खामोश हुई थी रजनीगन्धा,
चुप-चुप रही रातरानी,
खुशबु चुप थी, पुष्प थे गंध-विहीन,
करते गुहार, फैलाए आँचल....

इस दृष्टि-पथ से, तुम हुए थे जब ओझल...

बना रहा, इक मैं आशावान,
क्षणिक था वो प्रयाण,
किंचित फिर विहान, होना था कल,
यूँ ही तुम, लौट आओगे चल...

इस दृष्टि-पथ से, तुम हुए थे जब ओझल...