Thursday, 3 December 2020

विस्मृति

नहीं हो तुम कहीं, पर अभी तो, तुम थे यहीं!
स्मृतियाँ, बार-बार ले आती हैं तुम्हें,
और, मूर्त हो उठते हो तुम।

देखो ना! आज फिर, सजल हैं नैन तेरे,
बहते समीर संग, उड़ चले हैं, गेसूओं के घेरे,
चुप-चुप से हो, पर कंपकपाए से हैं अधर,
मौन हो जितने, हो उतने ही मुखर,
कितनी बातें, कह गए हो, कुछ कहे बिन,
चाहता हूँ कि अब रुक भी जाओ तुम!
रोकता हूँ कि अब न जाओ तुम!
विस्मृति के, इस, सूने से विस्तार में,
कहीं दूर, खो न जाओ तुम!
रोके, रुकते हो कहाँ तुम!

पर, तुम्हारी ही स्मृति, ले आती हैं तुम्हें,
दो नैन चंचल, फिर से, रिझाने आती हैं हमें,
खिल आते हो, कोई, अमर बेल बन कर,
बना लेते हो अपना, पास रहकर,
फिर, हो जाते हो धूमिल, कुछ कहे बिन,
उमर आते हो कभी, उन घटाओं संग,
सांझ की, धूमिल सी छटाओं संग,
विस्मृति के, उसी, सूने से विस्तार में,
वापस, सिमट जाते हो तुम!
रोके, रुकते हो कहाँ तुम!

नहीं हो तुम कहीं, पर अभी तो, तुम थे यहीं!
स्मृतियाँ, बार-बार ले आती हैं तुम्हें,
और, मूर्त हो उठते हो तुम।

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

14 comments:

  1. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार ४ दिसंबर २०२० के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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  2. बेहद सुंदर रचना

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  3. Replies
    1. बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय "हृदयेश" महोदय।इस पटल पर हार्दिक स्वागत है आपका ।

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  4. सांझ की, धूमिल सी छटाओं संग,
    विस्मृति के, उसी, सूने से विस्तार में,
    वापस, सिमट जाते हो तुम!
    रोके, रुकते हो कहाँ तुम!
    स्मृतियों में किसी का आना पुनः चले जाना
    रोके रूकती नहीं उनकी यादें पर न आयें ऐसा भी तो नहीं... वक्त बेवक्त मन में आ ही जाती हैं ये यादें...
    बहुत सुन्दर सृजन
    वाह!!!!

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    1. सुन्दर, प्रेरक प्रतिक्रिया हेतु बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया सुधा देवरानी जी।

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