नित ले आती, निशा, नव कल्पना!
निशीथ काल,
जब पल हो जाते प्रशीत,
तब दबे पांव, घूंघट ओढ़े, कोई आता,
पग धरता, बोझिल मन मानस पर,
सिहर कर, जग उठती,
सोई चेतना!
नित ले आती, निशा, नव कल्पना!
पंख पसारे,
ये विहग आकाश निहारे,
विस्तृत आंचल के, दोनो छोर किनारे,
उन तारों से, न जाने कौन पुकारे,
हृदय के, गलियारों में,
जागे वेदना!
नित ले आती, निशा, नव कल्पना!
निशा जागती,
खिल उठती, रजनीगंधा,
लय पर नाद-मृदंग की, झूमती निशा,
सहचर बन, गा उठते निशाचर,
ज्यूं, नव राग की हुई,
इक रचना!
नित ले आती, निशा, नव कल्पना!
(सर्वाधिकार सुरक्षित)