Sunday, 25 December 2022

निशा

नित ले आती, निशा, नव कल्पना!

निशीथ काल, 
जब पल हो जाते प्रशीत,
तब दबे पांव, घूंघट ओढ़े, कोई आता,
पग धरता, बोझिल मन मानस पर,
सिहर कर, जग उठती,
सोई चेतना!

नित ले आती, निशा, नव कल्पना!

पंख पसारे,
ये विहग‌ आकाश निहारे,
विस्तृत आंचल के, दोनो छोर किनारे,
उन तारों से, न जाने कौन पुकारे,
हृदय के, गलियारों में,
जागे वेदना!

नित ले आती, निशा, नव कल्पना!

निशा जागती,
खिल उठती, रजनीगंधा,
लय पर नाद-मृदंग की, झूमती निशा,
सहचर बन, गा उठते निशाचर,
ज्यूं, नव राग की हुई,
इक रचना!

नित ले आती, निशा, नव कल्पना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

8 comments:

  1. आपकी लिखी रचना सोमवार 26 दिसंबर 2022 को
    पांच लिंकों का आनंद पर... साझा की गई है
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

    संगीता स्वरूप

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  2. सचमुच... नित ले आती, निशा, नव कल्पना!
    बहुत अच्छी रचना सर।
    सादर।

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  3. वाह!!!!
    बेहतरीन सृजन...
    निशा लाती नव कल्पना
    बहुत सुंदर....
    पंख पसारे,
    ये विहग‌ आकाश निहारे,

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  4. Commentबहुत सुन्दर और भावपूर्ण अभिव्यक्ति के लिये आभार पुरुषोत्तम जी। रात के साथ यादें भी सजीव होती जाती है।क्रिसमस और नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं 🌺🌺🙏

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीया। आपको भी क्रिसमस और नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं...

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