Friday, 9 July 2021

रुख मोड़ दो

कोई रुख मोड़ दो, इस सफर का,
या छोड़ दो, ये काफिला,
अनमना सा, हो चला, ये सिलसिला!

बेखबर, ये अनमना सा, अन्तहीन सफर,
हर तरफ, बस, एक ही मंज़र,
बेतहाशा भागते सब, पत्थरों के पथ पर,
परवाह, किसकी कौन करे?
पत्थरों से लोग हैं, वो जियें या मरे!
अनभिज्ञ सा, ये काफिला,
अपनी ही, पथ चला!

अनसुना कर चला, ये सफर, ये काफिला!

अनसुने से, धड़कनों के हैं, गीत कितने,
बाट जोहे, हैं बैठे, मीत कितने,
किनारों पर, अनछुए से प्रशीत कितने,
बेसुरे से, हो चले, संगीत सारे,
गूंज कर ये वादियाँ, किनको पुकारे!
संगदिल सा, ये काफिला,
अपनी ही, धुन चला!

कोई रुख मोड़ दो, इस सफर का,
या छोड़ दो, ये काफिला,
अनमना सा हो चला, ये सिलसिला!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

10 comments:

  1. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (०९-०७-२०२१) को
    'माटी'(चर्चा अंक-४१२१)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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  2. वाह!पुरुषोत्तम जी ,क्या बात है ,बहुत खूब!

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  3. कोई रुख मोड़ दो, इस सफर का,
    या छोड़ दो, ये काफिला,
    अनमना सा हो चला, ये सिलसिला!

    आज सब की यही खवाहिश है ,हमेशा की तरह लाजबाब....सादर नमन आपको

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  4. बेखबर, ये अनमना सा, अन्तहीन सफर,
    हर तरफ, बस, एक ही मंज़र,
    बेतहाशा भागते सब, पत्थरों के पथ पर,
    परवाह, किसकी कौन करे?
    पत्थरों से लोग हैं, वो जियें या मरे!
    अनभिज्ञ सा, ये काफिला,
    अपनी ही, पथ चला!
    विचलित मन की शानदार भावाभिव्यक्ति पुरुषोत्तम जी | आपकी लेखनी का प्रवाह निर्बाध रहे यही कामना है | सादर

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    1. अभिनन्दन व विनम्र आभार आदरणीया रेणु जी।

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