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Monday, 21 January 2019

अभागिन

कदाचित्, न कहना खुद को तुम अभागिन!

स्नेह वंचित, एक बस तू ही नहीं,
नीर सिंचित, नैन बस इक तेरे ही नहीं,
कंपित हृदय, सिर्फ तेरा ही नहीं,
किंचित्, भरम ये रखना नहीं,
नैन कितनों के जगे, तारे गिन-गिन!

कदाचित्, न कहना खुद को तुम अभागिन!

भाग्य, लिखता कोई खुद से नहीं,
मनचाहा, मिलता हमेशा सबको नहीं,
हासिल है जो, वो कम तो नहीं!
पाकर उसे, बस खोना नहीं,
सहेज लेना, हिस्से के वो पलक्षिण!

कदाचित्, न कहना खुद को तुम अभागिन!

पिपासा है ये, जो मिटती नहीं,
अभिलाषा अनन्त, कभी घटती नहीं,
तृष्णा है ये, कभी मरती नहीं,
खुशियाँ कहीं, बिकती नहीं,
पलटते नहीं, बीत जाते हैं जो दिन!

कदाचित्, न कहना खुद को तुम अभागिन!

विधि का विधान, जाने विधाता,
न जाने भाग्य में, किसके लिखा क्या,
पर, हर रात की होती है सुबह,
सदा ही, अंधेरा रहता नहीं,
हो न हो, बुझ रहा हो रात पलक्षिण।

कदाचित्, न कहना खुद को तुम अभागिन!

Wednesday, 11 July 2018

लकीरें

मिटाए नहीं मिटती ये सायों सी लकीरें.......

कहता इसे कोई तकदीर,
कोई कहता ये है बस हाथों की लकीर,
या गूंदकर हाथों पर,
बिछाई है इक बिसात किसी ने!

यूं चाल कई चलती ये हाथों की लकीरें.......

शतरंज सी है ये बिसात,
शह या मात देती उम्र सारी यूं ये साथ,
या भाग्य के नाम पर,
खेला है यहां खेल कोई किसी ने!

लिए जाए है कहां ये हाथों की लकीरें.......

आड़ी तिरछी सी राह ये,
कर्म की लेखनी का है कोई प्रवाह ये,
इक अंजाने राह पर,
किस ओर जाने भेजा है किसी ने!

मिटती नहीं हाथ से ये सायों सी लकीरें.......

या पूर्व-जन्म का विलेख,
या खुद से ही गढ़ा ये कोई अभिलेख,
कर्म की शिला पर,
अंकित कर्मलेख किया है किसी ने!

तप्तकर्म की आग से बनी है ये लकीरें......

Sunday, 6 March 2016

कर्ण सा दुर्भाग्य किसी का न हो!

हाय! ये भाग्य कैसा पाया था उस कुन्तीपुत्र कर्ण नें?

कोख मिला कुन्ती का किन्तु, कुन्ती पुत्र न कहलाया,
जिस माता ने जन्म दिया, उसने ही उसको ठुकराया,
कुल रत्न होकर भी,  कुल का यशवर्धन न बन पाया,
आह! विडम्बना ये कैसी,जीवन की कैसी है ये माया।

हाय! ये भाग्य कैसा पाया था उस दानवीर कर्ण नें?

उपाधि सूर्यपुत्र की पर,सूतपुत्र जीवन भर कहलाया,
कर्मों से बड़ा दानवीर पर, ग्यान का दान न ले पाया,
दान कवच-कुंडल का उससे, इंन्द्र नें कुयुँकर मांगा,
आह! ये कैसी विधाता की लीला, ये कैसी है माया।

हाय! ये भाग्य कैसा पाया था उस सूर्यपुत्र कर्ण नें?

ग्यान गुरू का पाने को,  कह गया छोटी सी झूठ वो,
सूत पूत्र के बदले खुद को, कह गया ब्राह्मण पूत्र वो,
शापित हुआ गुरू से तब, बना जीवन का कलंक वो,
अन्त समय जो काम न आया,पाया उसने ग्यान वो।

हाय! ये भाग्य कैसा पाया था उस महाग्यानी कर्ण नें?

Wednesday, 13 January 2016

हाथों की रेखाएँ

चकित भाव से रह-रह वो देखता,
हाथों को रेखाओं को और सोचता,
क्या वश में है मेरी भाग्य रेखा?
क्या आज शेष बची है जीवन रेखा?

रेखाएँ मस्तिस्क की भी होती हाथों मे,
हृदय रेखा भी कुछ आरी-टेढ़ी,
फिकर कहाँ हृदय, मस्तिस्क रेखा की,
मति मस्तिस्क की खुद ही है खोई,
क्या देख पाएगा वो मस्तिस्क की रेखा?

वो वश करना चाहता रेखाओं में,
व्योम के तारे, वसुधा के सारे धन,
पर फिकर कहाँ मन के तम की,
मन तो खुद ही स्वप्न मे खोया,
क्या तोड़ बंध बना सकेगा प्रभा रेखा?

भाग्य,जीवन गर करना हो वश मे,
ज्योति वृत्त बना पथ वश में करो तुम,
चलो जहाँ मन, मस्तिस्क, प्राण चलते हैं,
संकल्प करो सोए मस्तिष्क जगा तुम,
क्या वश कर सकेगा तू जीवन भाग्य रेखा?

Monday, 4 January 2016

भाग्य और किस्मत

भाग्य का दामन,
नही छोड़ा कभी जीवन ने,
कर्म का भाग्य से शायद,
है जन्मों का नाता,
किस्मत मे जो है तेरे,
वही सामने आता।

वश नहीं विधि के लिखे पर,
दूर जिससे तू जितना भागता,
उतना ही वो समीप आ जाता,
लिखा तेरा तेरे सामने आता,
भाग्य के रेखाओं पर,
वश कहाँ चल पाता।

कर्म किए जा तू पथपर,
आगे की व्यर्थ चिन्ता मतकर,
जो होगा लिखा विधि में,
आएगा वो खुद चलकर,
भाग्य के लिखे पर,
वश कहाँ चल पाता।

अच्छे-बुरे की कर पहचान,
पथ अपनी तू चलता जा,
भाग्य को मत कौश अपने,
किस्मत की अनमिट रेखा,
तू बदल नही सकता,
है तेरे किस्मत मे जो,
वही सामने आता।