उम्र गुजरी, प्रश्नों के इक मकर जाल में,
उस पार उतरा, था मैं जरा सा,
अंतिम साँसें, गिन रही थी प्रश्न कई,
सो रही थी, मन की जिज्ञासा खोई हुई,
कुछ प्रश्न चुभते मिले, शूल जैसे,
जगा गई थी, मेरी जिज्ञासा!
उभरते हैं प्रश्न कई, मकर जाल बनकर!
जन्म लेती है, इक नई जिज्ञासा,
नमीं को सोख कर, जमीं को बींध कर,
जैसे फूटता हो बीज कोई, अंकुर बनकर,
प्रश्न नया, उभरता है एक फिर से,
जागती है, इक नई जिज्ञासा!
उलझी प्रश्न में, सुलझी कहाँ ये जिंदगी!
बना इक सवाल, ये ही बड़ा सा,
हर प्रश्न के मतलब हैं दो, उत्तर भी दो,
खुद राह कोई, मुड़ कर कहीं गया है खो,
तो करता कोई क्यूँ, फिर प्रश्न ऐसे,
है जाल में, उलझी जिज्ञासा!
उलझाए हैं ये प्रश्न, मकर जाल बनकर!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
उस पार उतरा, था मैं जरा सा,
अंतिम साँसें, गिन रही थी प्रश्न कई,
सो रही थी, मन की जिज्ञासा खोई हुई,
कुछ प्रश्न चुभते मिले, शूल जैसे,
जगा गई थी, मेरी जिज्ञासा!
उभरते हैं प्रश्न कई, मकर जाल बनकर!
जन्म लेती है, इक नई जिज्ञासा,
नमीं को सोख कर, जमीं को बींध कर,
जैसे फूटता हो बीज कोई, अंकुर बनकर,
प्रश्न नया, उभरता है एक फिर से,
जागती है, इक नई जिज्ञासा!
उलझी प्रश्न में, सुलझी कहाँ ये जिंदगी!
बना इक सवाल, ये ही बड़ा सा,
हर प्रश्न के मतलब हैं दो, उत्तर भी दो,
खुद राह कोई, मुड़ कर कहीं गया है खो,
तो करता कोई क्यूँ, फिर प्रश्न ऐसे,
है जाल में, उलझी जिज्ञासा!
उलझाए हैं ये प्रश्न, मकर जाल बनकर!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा