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Thursday, 8 April 2021

हूक उठे

दिल में हूक उठे, तब, कोई कविता लिखे,
ज्यूँ, कोयल कूक उठे!

कैसी, यह गूढ़ विधा!
ज्यूँ रोगी मन, योगी सा हुआ!
वो नीर लिए, अपनी ही, पीड़ लिखे,
उलझी सी, जंजीर लिखे,
खुद रोए, खुद हँसे!

वो कविता लिखे, ज्यूँ, कोयल कूक उठे!

शब्द-शब्द, हों कंपित,
हों, मुक्त-आकाश, रक्त-रंजित,
वो मन के, खंड-खंड, भू-खंड लिखे,
ढ़हती सी, हिमखंड लिखे,
रक्त बहे, शब्द हँसे!

वो कविता लिखे, ज्यूँ, कोयल कूक उठे!

इक, प्यासा एहसास,
जागा हर दर्द, बड़ा ही खास,
सौ-सौ बार, अनसुन मनुहार लिखे, 
अनवरत, वो गुहार लिखे,
पढ़-पढ़, खुद हँसे!

दिल में हूक उठे, तब, कोई कविता लिखे,
ज्यूँ, कोयल कूक उठे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 6 February 2016

जीवन सांध्य प्रहर

उमर अवसान की ओर अग्रसर,
मद्धिम हो रहा उफनते ज्वार का आवेग,
आँखों पर छा रहा हल्का सा धुंधला धीरे धीरे,
अवसान की संध्या का मैं करता मनुहार।

जीवन शिला यह पिघल रहा अब,
भरोसा खुद की सामर्थ पर नही हो रहा अब,
अकड़ मासपेशियाँ की ढ़ीली पड़ रही धीरे-धीरे,
फूट जाए कब कांच का घट करता विचार।

अधूरी छूट जाए न कोई कहानी,
टूट जाए न इरादों वादों की कोई जुवानी,
यह घुटन यह यातना हर पल सहता मैं धीरे-धीरे,
सांध्य प्रहरी की नक्षत्र का मै करता मनुहार।