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Thursday, 8 April 2021

हूक उठे

दिल में हूक उठे, तब, कोई कविता लिखे,
ज्यूँ, कोयल कूक उठे!

कैसी, यह गूढ़ विधा!
ज्यूँ रोगी मन, योगी सा हुआ!
वो नीर लिए, अपनी ही, पीड़ लिखे,
उलझी सी, जंजीर लिखे,
खुद रोए, खुद हँसे!

वो कविता लिखे, ज्यूँ, कोयल कूक उठे!

शब्द-शब्द, हों कंपित,
हों, मुक्त-आकाश, रक्त-रंजित,
वो मन के, खंड-खंड, भू-खंड लिखे,
ढ़हती सी, हिमखंड लिखे,
रक्त बहे, शब्द हँसे!

वो कविता लिखे, ज्यूँ, कोयल कूक उठे!

इक, प्यासा एहसास,
जागा हर दर्द, बड़ा ही खास,
सौ-सौ बार, अनसुन मनुहार लिखे, 
अनवरत, वो गुहार लिखे,
पढ़-पढ़, खुद हँसे!

दिल में हूक उठे, तब, कोई कविता लिखे,
ज्यूँ, कोयल कूक उठे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 17 March 2018

टेढ़े मेढ़े मेड़ - खंड खंड भूखंड

खंड-खंड खेतों को बांटते ये टेढ़े-मेढ़े मेड़...

टेढी मेढ़ी लकीेरों से पटी ये धरती,
जैसे विषधर लेटी हो धरती के सीने पर,
चीर दिया हों सीना किसी ने,
चली हो निरंकुश स्वार्थ की तलवार, 
खंड खंड होते ये बेजुबान भूखंड.....

मानसिकता के परिचायक ये टेढ़े-मेढ़े मेड़...

ये तेरा, ये मेरा, ये खंड खंड बसेरा,
ये लालसा ये पिपासा, ये स्वार्थ का डेरा,
ये संकुचित होती मानसिकता,
ये सिमटते से रिश्तों का छोटा संसार,
ये खंड खंड हुए बिलखते भूखंड.....

खंड-खंड रिश्तों को बांटते ये टेढ़े-मेढ़े मेड़...

वाद-विवाद, रिश्तों में आई खटास, 
मन की भूखंड पर पनपते ये विषाद वॄक्ष,
अपनो के लहू से रंगे ये हाथ,
टेढे मेढे मेडों पर सरकता काला नाग!
यूं खंड खंड होते रिश्तों के भूखंड.....

खंड-खंड जीवन को करते ये टेढ़े-मेढ़े मेड़...

गर होते ये मेड़ संस्कारों के,
कुसंस्कार प्रविष्ट न हो पाते जीवन में,
पनपते कुलीन विचार मन में,
मेड़ ज्ञान की दूर करती अज्ञानता,
स्वार्थ हेतु खंड खंड न होते ये भूखंड....

काश! निश्छल मन को न बांटते ये टेढ़े मेढ़े मेड़....