Saturday, 6 February 2016

जीवन सांध्य प्रहर

उमर अवसान की ओर अग्रसर,
मद्धिम हो रहा उफनते ज्वार का आवेग,
आँखों पर छा रहा हल्का सा धुंधला धीरे धीरे,
अवसान की संध्या का मैं करता मनुहार।

जीवन शिला यह पिघल रहा अब,
भरोसा खुद की सामर्थ पर नही हो रहा अब,
अकड़ मासपेशियाँ की ढ़ीली पड़ रही धीरे-धीरे,
फूट जाए कब कांच का घट करता विचार।

अधूरी छूट जाए न कोई कहानी,
टूट जाए न इरादों वादों की कोई जुवानी,
यह घुटन यह यातना हर पल सहता मैं धीरे-धीरे,
सांध्य प्रहरी की नक्षत्र का मै करता मनुहार। 

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