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Thursday, 25 August 2016

मुकम्मल मुकाम

न जाने किस मुकाम पे, मुकम्मल होगी ये जिन्दगी?

गुजरे हैं कई मुकाम इस जिन्दगी की पास से,
देखता हूँ मुड़कर मुकाम थी वो कौन सी,
साथ जब तलक रही अजनवी सी वो लगती रही,
अब दूर है वो कितनी मुकाम थी जो खास सी,

न जाने किस मुकाम पे, मुकम्मल होगी ये जिन्दगी?

रफ्ता-रफ्ता उम्र ये, फिसलती गई इन हाथों से,
वक्त बड़ा ये बेरहम, जो छल गई मुकाम पे,
गैरों की इस भीड़ में, अंजाने हुए हम अपने आप से,
धूँध आँखों में लिए मुकाम तलाशती ये जिन्दगी,

न जाने किस मुकाम पे, मुकम्मल होगी ये जिन्दगी?

हाथ आए ना वापस, गुजरे हैं जो मुकाम, पास से,
अब समेटता हूँ मैं, गुजरते लम्हों को हाथ से,
गाता हूँ फिर वो नग्मा, जब गुजरता हूँ मुकाम से,
तसल्ली क्या दिल को देगी, इस मुकाम पर जिन्दगी?

न जाने किस मुकाम पे, मुकम्मल होगी ये जिन्दगी?

Saturday, 9 April 2016

इस सफर की मंजिल

उम्र के सफर की इस पड़ाव पर कौन सी मंजिल है ये?

कट चुकी आधी सफर, सिर्फ आधी ही बची,
ये किस मुकाम पर ले चली, आज मुझको ये जिन्दगी,
ये सफर है कौन सी, मंजिल है क्यों अंजान सी?

क्या अंधेरा ही मिलेगा, जिन्दगी की मंजिलो पर?
रुक कर सोचता यही है मन, जीवन के इस पड़ाव पर,
हासिल अनुभव हजार, पर मंजिलों से क्युँ बेखबर?

संग ले चलूँ मै कुछ दिए,अंजानी उन मंजिलों पर,
कुछ उजाले भर सकुँ मैं, इक दीप बन के मंजिलों पर,
अंजानी रही है ये सफर, मंजिल न हो अंजानी मगर!

उम्र के इस सफर की, हमसफर मेरी मंजिल वही,
हमसफर की तलाश में, भटकते रहे सारी उम्र युँ हीं,
गुजरुँ इन राहों से मैं, रह जाऊँ यादों में आपकी!

Sunday, 21 February 2016

ये किस मुकाम पर जिन्दगी

ए जिन्दगी, इन रास्तों का पता अब तू ही मुझको बता। 

ये किस मुकाम पर आ पहुँची है जिन्दगी,
 न अपनों की खबर न मजिलों का हेै पता, 
सहरा की धूल मे कहीं, खो गई हर रास्ता,
चँद सांसे ही बची अब, आपसे ही वास्ता।

अंतहीन मरुभूमि सी, लग रही ये जिन्दगी,
धूल सी जम गई समुज्जवल सोच पर मेरे,
संकुचित सिमट रहे, अब दायरे विश्वास के,
मुकाम अब ये कौन सी जिन्दगी के वास्ते।

रेखाएँ सी खिची हुई, हर तरफ यहाँ वहाँ,
अंजान इन रास्तों पर कदम रखें तों कहाँ,
अक्ल जम सी गई हैं, देख कर विरानियाँ,
ये किस मुकाम पर ले आई मेरी रवानियाँ।

ए जिन्दगी, इन रास्तों का पता अब तू ही मुझको बता।