परिंदा, मन का, पर खोले चाहे उड़ना,
रुके कहाँ, मानव की तृष्णा!
मानव की खातिर, कितना मुश्किल है खोना,
अपूरित ख़्वाहिशों का, जग उठना,
उस अनदेखे की, ख्वाहिशों संग सोना,
उनको भी, मन चाहे पा लेना,
निर्णय-अनिर्णय के, उन दोराहों पर,
ले आती है तृष्णा!
परिंदा, मन का, पर खोले चाहे उड़ना,
रुके कहाँ, मानव की तृष्णा!
मन, पाए ना राहत, जग जाए जब ये चाहत,
अन्जाने ही, मन होता जाए आहत,
भ्रम की इक, किश्ती में, वो ढूंढे राहत,
जाने, पर स्वीकारे ना ये सत्य,
चाहत के, उस अनिर्णीत दोराहों पर,
ले आती है तृष्णा!
परिंदा, मन का, पर खोले चाहे उड़ना,
रुके कहाँ, मानव की तृष्णा!
खो दे कुछ भी, उन अनिश्चितताओं के बदले,
पाना चाहे, उन इच्छाओं को पहले,
भले ही इच्छाओं को, इच्छाएं ही डस ले,
कैसी आशा, कैसा यह स्वप्न,
अंधियारे से, इक विस्तृत दोराहों पर,
ले आती है तृष्णा!
परिंदा, मन का, पर खोले चाहे उड़ना,
रुके कहाँ, मानव की तृष्णा!
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
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इच्छा
1. कामना, चाह, ख्वाहिश; 2. रुचि।
इक्षा
1. नज़र; दृष्टि 2. देखने की क्रिया; दर्शन 3. विचारना; विवेचन करना; पर्यालोचन।
बहुत सुंदर रचना आदरणीय
ReplyDeleteशुक्रिया आदरणीया। ।।
Deleteये तृष्णा ही है जो मन को हर समय उद्द्वेलित कराती रहती ... सुन्दर रचना ...
ReplyDeleteइक्षाओं / इच्छाओं
शुक्रिया आदरणीया ....
Deleteबहुत सुन्दर।
ReplyDelete--
श्री राम नवमी की हार्दिक शुभकामनाएँ।
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मित्रों पिछले तीन दिनों से मेरी तबियत ठीक नहीं है।
खुुद को कमरे में कैद कर रखा है।
आदरणीय मयंक सर, कोरोना के इस विकट समय में, किसी भी प्रकार के संक्रमण को गंभीरतापूर्वक लेना होगा हमें। आप अपना पूरा ख्याल रखें।
Deleteहमारी शुभकामनाएँ व प्रार्थनाएं आपके साथ हैं।
प्रणाम। ।।।
ReplyDeleteखो दे कुछ भी, उन अनिश्चितताओं के बदले,
पाना चाहे, उन इच्छाओं को पहले,
भले ही इच्छाओं को, इच्छाएं ही डस ले,
कैसी आशा, कैसा यह स्वप्न,
अंधियारे से, इक विस्तृत दोराहों पर,
ले आती है तृष्णा!...जीवन मृगतृष्णा है,सच कहा आपने ।सुधार सृजन ।
विनम्र आभार आदरणीया जिज्ञासा जी। बहुत-बहुत धन्यवाद।
Deleteबहुत दिनों बाद मैं ब्लाॅग पर आया हूँ। सबसे पहली रचना मुझे आपकी पढ़ने को मिली। बहुत बढ़िया रचना है।
ReplyDeleteब्लॉग जगत आप जैसे रचना प्रेमियों की कमी हमेशा महसूस करता रहा है।
Deleteवापस आने हेतु आभार।।।।।।
हमारी कोशिश होगी कि आपको जाने न दें वापस।।।।
स्वागतम आदरणीय प्रकाश साह जी।
बहुत खूब पुरुषोत्तम जी! मन का परिंदा किसी से भी तेज, पल पल ना जाने कितने योजन उड़ता फिरता है! लेकिन किसकी कामना होती हैं मान पाखी को?
ReplyDeleteअधूरी कामनाओं की पूर्णता के लिए भटकते मन की करुण कथा!!
बहुत अच्छा लिखा आपने 👌👌🙏🙏❤❤🌹🌹🌹🙏
बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया। ।।।
Deleteमानव की खातिर, कितना मुश्किल है खोना,
ReplyDeleteअपूरित ख़्वाहिशों का, जग उठना,
उस अनदेखे की, ख्वाहिशों संग सोना,
उनको भी, मन चाहे पा लेना,
निर्णय-अनिर्णय के, उन दोराहों पर,
ले आती है तृष्णा!
विनम्र आभार आदरणीया रेणु जी।
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