तृप्त भला क्या कर सकेगी, सूक्ष्म कुहासा?
तरसते चितवनों को, जरा सा!
फिर भी, बांध लेती है तरसते चितवनों को,
एक आशा दे ही देती है, उजड़े मनों को,
पिरोकर विश्वास को, जरा सा!
तरसते चितवनों को,
सींच जाती है, सूक्ष्म कुहासा!
जगाकर आस, निरन्तर करती लघु प्रयास,
आच्छादित कर ही लेती है, उपवनों को,
भिगोकर वसुंधरा को, जरा सा!
विचलित चितवनों को,
त्राण जाती है, सूक्ष्म कुहासा!
टपकती है रात भर, धुन यही मन में लिए,
जगा पाऊँगी मैं कैसे, सोए उम्मीदों को,
जगाकर जज़्बातों को, जरा सा!
मृतपाय चितवनों को,
जगा जाती है, सूक्ष्म कुहासा!
तृप्त भला क्या कर सकेगी, सूक्ष्म कुहासा?
तरसते चितवनों को, जरा सा!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा