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Friday, 10 April 2020

अधिकार

इक अग्नकुंड के किनारे,
सौंप डाले थे,
तुम्हें हमने, अपने अधिकार सारे!

अब अधिकार है, सिर्फ तुझको!
आँखें फेर लो, या, अंक-पाश में घेर लो,
चलो, गगन में, संग दूर तक,
या, मध्य राह में, कहीं, मुँह मोड़ लो,
जल चुके थे, धू-धू हम तो,
उसी अग्नकुंड में!
जल चुकी थी, मेरी कामनाएँ,
बाकि, रही थी, एक इक्षा!
तुम करोगे, एक दिन,
मेरी समीक्षा!

इक अग्नकुंड के किनारे,
सौंप डाले थे,
तुम्हें हमने, अपने अधिकार सारे!

अधिकार है, पूछने का तुमको!
कितना जला मैं? कितना संग चला मैं?
उन, सात फेरों, में घिरा मैं!
या, मध्य राह में, वचन फिर सात लो,
सिमटते रहे, थे हम तो,
उसी प्रस्तावना में!
बहकती रही थी, मेरी भावनाएँ,
शेष, बची थी, एक इक्षा!
करोगे, एक दिन, तुम,
मेरी समीक्षा!

इक अग्नकुंड के किनारे,
सौंप डाले थे,
तुम्हें हमने, अपने अधिकार सारे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday, 6 August 2018

द्वितीय संस्करण

सम्भव होता गर जीवन का द्वितीय संस्करण,
समीक्षा कर लेता जीवन की भूलों का,
फिर जी लेता इक नव-संस्करित जीवन!

क्या मुमकिन है ये द्वितीय संस्करण?

नए सिरे से होता, तब रिश्तों का नवीकरण,
परिमार्जित कर लेता मैं अपनी भाषाएं,
बोली की कड़वाहट का होता शुद्धिकरण!

क्या मुमकिन है ये द्वितीय संस्करण?

संस्कारी प्रवृत्तियों का करता मैं नव-उद्बोधन,
समूल नष्ट कर देता असंस्कारी अवयव,
कर लेता उच्च मान्यताओं का मैं संवर्धन।

क्या मुमकिन है ये द्वितीय संस्करण?

विसंगतियों से पृथक होता ये जीवन-दर्शन!
कर्मणा-वाचसा न होते विभिन्न परस्पर,
वैचारिक त्रुटियों का कर लेता निराकरण!

क्या मुमकिन है ये द्वितीय संस्करण?

परन्तु, प्रथम और आखिरी है यही संस्करण,
द्वितीय संस्करण इक कोरी सी कल्पना ,
अपनी जिम्मेदारी है यही प्रथम संस्करण!

बस नामुमकिन है ये द्वितीय संस्करण?