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Friday, 30 July 2021

तिश्नगी

चलो चलें कहीं, उन फिजाओं में.....

इक तड़प, इक तिश्नगी, सी है छाई,
सिमट सी आई, है ये तन्हाई,
घुटन सी है, इन हवाओं में,
चलो चलें कहीं.......

कितनी बातें, करती हैं ये खामोशी,
हवाओं नें, की है ये सरगोशी,
चुभन सी है, ऐसी बातों में,
चलो चलें कहीं.......

यूँ, कब तलक, तरसाए, ये तिश्नगी,
मार ही डाले, न ये, आवारगी,
अगन सी है, इन सदाओं में,
चलो चलें कहीं.......

इक गिरह सी, बंध चुकी है अन्दर,
रुक पाए, पर कहाँ ये समुन्दर,
सीलन सी है, इन दरारों में, 
चलो चलें कहीं.......

चलो चलें कहीं, उन फिजाओं में.....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)
.....................................................
तिश्नगी: प्यास, लालसा, तड़प, उत्कंठा, तमन्ना, तीव्र इच्छा, अभिलाषा

Sunday, 10 January 2021

वो खत

फिर वर्षों सहेजते!
किताबों में रख देने से पहले,
खत तो पढ़ लेते!

यूँ ना बनते, हम, तन्हाई के, दो पहलू,
एकाकी, इन किस्सों के दो पहलू,
तन्हा रातों के, काली चादर के, दो पहलू!
यूँ, ये अफसाने न बनते,
किताबों में रख देने से पहले,
वो खत तो पढ़ लेते!

वो चंद पंक्तियाँ नहीं, जीवन था सारा,
मूक मनोभावों की, बही थी धारा,
संकोची मन को, कहीं, मिला था किनारा!
यूँ, कहीं भँवर न उठते,
किताबों में रख देने से पहले,
वो खत तो पढ़ लेते!

बीती वो बातें, कुरेदने से क्या हासिल,
अस्थियाँ, टटोलने से क्या हासिल,
किस्सा वो ही, फिर, दोहराना है मुश्किल!
यूँ, हाथों को ना मलते,
किताबों में रख देने से पहले,
वो खत तो पढ़ लेते!

अब, जो बाकि है, वो है अस्थि-पंजर,
दिल में चुभ जाए, ऐसा है खंजर,
एहसासों को छू गुजरे, ये कैसा है मंज़र!
यूँ, छुपाते या दफनाते,
किताबों में रख देने से पहले,
वो खत तो पढ़ लेते!
फिर वर्षों सहेजते!
किताबों में रख देने से पहले,
खत तो पढ़ लेते!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday, 17 June 2020

याद तुझको किया

जब ताकती हो, शून्य को, मेरी आँखें,
रुक सी गई हों, ये मेरी, चंचल सी पलकें,
ठहरा वहीं हो, बादल गगन पे,
तो, समझना, वो तुम हो,
और, याद तुझको, मैंने किया है!

विचलित हो जब, कभी मन तुम्हारा,
जब लेना पड़े, तुम्हें तन्हाईयों का सहारा,
लगे कोई बुलाए, हलके-हलके,
तो, समझना, वो मैं हूँ,
और, याद तुझको, मैंने किया है!

जो झुक जाएँ, उन पर्वतों पे घटाएँ,
कहीं रुक कर पवन, भरे सर्द सी आहें,
राहों में, बिखरे हों टूट कर पत्ते,
तो, समझना, वो मैं हूँ,
और, याद तुझको, मैंने किया है!

आँखें सजल हो, कटता न पल हो,
कोई अश्रु-धार बन, बहता अविरल हो,
पराया लगे जब, एहसास सारे,
तो, समझना, वो मैं हूँ,
और, याद तुझको, मैंने किया है!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 7 June 2020

फसाने

कल के हकीकत, आज लगते हैं फसाने!
खुद हो चले हम, कितने बेगाने!

गुम है हकीकत, गुमनाम हैं गुजरे हुए कल,
कौन जाने, जीवंत कितने थे वो पल,
कोई कहानी सी, बन चुकी वो,
यादों की निशानी सी, बन चुकी वो,
कोरी हकीकत वो, कौन जाने!

कल के हकीकत, आज लगते हैं फसाने!
खुद हो चले हम, कितने बेगाने!

छूट ही जाते हैं, कहीं उन महफ़िलों में हम,
जैसे रूठ जाते हैं, वो गुजरे हुए क्षण,
लौट कर फिर, न आते हैं वो,
छू कर तन्हाई में, गुजर जाते हैं वो,
बीते वो फसाने, कौन जाने!

कल के हकीकत, आज लगते हैं फसाने!
खुद हो चले हम, कितने बेगाने!

ठहरे हैं आज भी हम, उन्हीं अमराइयों में,
एकाकी से पड़े हैं, इन तन्हाईयों में,
बन कर गूंजती है, आवाज वो
मूंद कर नैन, सुनता हूँ आवाज वो,
ख़ामोशियाँ वो, कौन जाने!

कल के हकीकत, आज लगते हैं फसाने!
खुद हो चले हम, कितने बेगाने!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday, 9 March 2020

मेरी परछाईं

मेरी ही जाई! वो मेरी ही परछाईं! 
थी कितनी हरजाई!

बीती, जब जीवन की अमराई,
मंद पड़ी, जब जीवन की जुन्हाई,
पास कहीं ना, वो दिखती थी,
शायद, वो थी अब घबराई!

मेरी ही जाई! वो मेरी ही परछाईं! 
थी कितनी हरजाई!

शायद वो थी, बस इक हरजाई!
कदमों की लय पर, वो चलती थी,
धूप ढ़ले, बस वो भी ढ़लती थी,
इन, बाहों में, कब आई?

मेरी ही जाई! वो मेरी ही परछाईं! 
थी कितनी हरजाई!

ता-उम्र, साथ रही मेरी परछाईं,
थी फिर भी, मेरे हिस्से ही तन्हाई,
गुमसुम, बस चुप वो रहती थी,
पीड़ मेरी, वो पढ़ ना पाई!

मेरी ही जाई! वो मेरी ही परछाईं! 
थी कितनी हरजाई!

मुझ बिन, कैसे झेलेगी तन्हाई?
कौन कहेगा, चल ऐ मेरी परछाई,
पीड़ वही, अब वो भी झेलेगी,
कल तक, थी जो इतराई!

मेरी ही जाई! वो मेरी ही परछाईं! 
थी कितनी हरजाई!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 25 January 2020

तन्हाई में कहीं

चलो ना, तन्हाई में कहीं, कुछ देर जरा....

मन को चीर रही, ये शोर, ये भीड़,
हो चले, कितने, ये लोग अधीर,
हर-क्षण है रार, ना मन को है करार, 
क्षण-भर न यहाँ, चैन जरा!

चलो ना, तन्हाई में कहीं, कुछ देर जरा....

सुई सी चुभे, कही-अनकही बातें,
मन में ही दबी, अनकही बातें,
कैसे, कर दूँ बयाँ, दर्द हैं जो हजार,
समझा, इस मन को जरा!

चलो ना, तन्हाई में कहीं, कुछ देर जरा....

वो छाँव कहाँ, मिले आराम जहाँ,
वो ठाँव कहाँ, है शुकून जहाँ,
नफ़रतों की, चली, कैसी ये बयार,
बहला, मेरे मन को जरा!

चलो ना, तन्हाई में कहीं, कुछ देर जरा....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 17 November 2019

चुप हैं दिशाएँ

चुप हैं ये दिशाएँ, कहीं बज रहे हैं साज!
धड़कनों नें यूँ, बदले हैं अंदाज!

ओढ़े खमोशियाँ, ये कौन गुनगुना रहा है?
हँस रही ये वादियाँ, ये कौन मुस्कुरा रहा है?
डोलती हैं पत्तियाँ, ये कौन झूला रहा है?
फैली है तन्हाईयाँ, कोई बुला रहा है!
ये क्या हुआ, है मुझको आज!
लगे तन्हाईयों में, कहीं बज रहे हैं साज!
ख़ामोशियों ने, बदले हैं अंदाज!

चुप हैं ये दिशाएँ, कहीं बज रहे हैं साज!
धड़कनों नें यूँ, बदले हैं अंदाज!

किसकी है मुस्कुराहट, ये कैसी है आहट!
छेड़े है कोई सरगम, या है इक सुगबुगाहट!
चौंकता हूँ, सुन पत्तियों की सरसराहट!
सुनता हूँ फिर, अंजानी सी आहट!
खुली सी पलकें, हैं मेरी आज!
लगे तन्हाईयों में, कहीं बज रहे हैं साज!
मुस्कुराहटों के, बदले हैं अंदाज!

चुप हैं ये दिशाएँ, कहीं बज रहे हैं साज!
धड़कनों नें यूँ, बदले हैं अंदाज!

मुद्दतों तन्हा, रहा अकेला मेरा ही साया,
चुप हैं ये दिशाएँ, वो चुपके से कौन आया!
धुन ये कौन सा, धड़कनों में समाया?
रंग ये कौन सा, मन को है भाया?
ये पुकारता है, किसको आज!
लगे तन्हाईयों में, कहीं बज रहे हैं साज!
यूँ रुबाईयों ने, बदले हैं अंदाज!

चुप हैं ये दिशाएँ, कहीं बज रहे हैं साज!
धड़कनों नें यूँ, बदले हैं अंदाज!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 11 October 2019

अवगीत मेरे ही

बजती हैं धड़कन में तेरे, अवगीत मेरे!
भूलूँ कैसे मैं, एहसान तेरे!

सुरहीन मेरे गीतों को, जब तुम गाते हो,
मन वीणा संग, यूँ सुर में दोहराते हो,
छलक उठते हैं, फिर ये नैन मेरे।
भूलूँ कैसे मैं, एहसान तेरे!

सूने इस मन में, बज उठते हैं साज कई,
तन्हाई देने लगती है, आवाज कोई,
यूँ दूर चले जाते हैं, अवसाद मेरे!
भूलूँ कैसे मैं, एहसान तेरे!

गा उठते हैं संग, क्षोभ-विक्षोभ के क्षण,
नृत्य-नाद करते हैं, अवसादों के कण,
अनुनाद कर उठते हैं, तान मेरे!
भूलूँ कैसे मैं, एहसान तेरे!

अवगीतों पर मेरे, तूने छनकाए पायल,
गाए हैं रुन-झुन, आंगन के हर पल,
झंकृत हुए है संग, एकान्त मेरे!
भूलूँ कैसे मैं, एहसान तेरे!

बजती हैं धड़कन में तेरे, अवगीत मेरे!
भूलूँ कैसे मैं, एहसान तेरे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Sunday, 4 August 2019

परछाईं तेरी

वो तुम थे, या थी बस परछाईं तेरी,
थी खुश्बू कोई, जिनसे मिलती थी तन्हाई मेरी,
महक उठता था, चमन, वो गुलशन सारा,
वो थे तुम, या था वो भरम सारा!

थी परछाईं तेरी, या वो था हमसाया मेरा!
मुझसे ही जुदा, था कहीं साया मेरा!

इक हमसाए सी रही, परछाईं तेरी,
इक धुंध सी थी, भटकती थी जहाँ तन्हाई मेरी,
धुआँ-धुआँ सा हुआ, था वो आलम सारा,
वो थे तुम, या था वो भरम सारा!

थी परछाईं तेरी, या वो था हमसाया मेरा!
मुझसे ही जुदा, था कहीं साया मेरा!

थे धुंध के पहरे, या थी जुल्फें तेरी,
उलझते थे वो बादल, या उलझती थी लटें तेरी,
यूं वादियों से कहीं, था तन्हाई ने पुकारा,
वो थे तुम, या था वो भरम सारा!

थी परछाईं तेरी, या वो था हमसाया मेरा!
मुझसे ही जुदा, था कहीं साया मेरा!

हैरां कर गई, चुप सी वो बातें तेरी,
तन्हाईयों से हुई, वो लम्बी सी मुलाकातें मेरी,
ढूंढता हूँ अब, उन्ही लम्हातों का सहारा,
वो थे तुम, या था वो भरम सारा!

थी परछाईं तेरी, या वो था हमसाया मेरा!
मुझसे ही जुदा, था कहीं साया मेरा!

दूर जाती रही, मुझसे परछाईं तेरी,
यूँ  सताती रही, पास आकर वही तन्हाई मेरी,
गुजरा न वो पल, बेरहम वो वक्त ठहरा,
वो थे तुम, या था वो भरम सारा!

थी परछाईं तेरी, या वो था हमसाया मेरा!
मुझसे ही जुदा, था कहीं साया मेरा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Sunday, 14 July 2019

वर्षों हुए दिल को टटोले

वर्षों हुए थे, इस दिल को टटोले.....

इक दौड़ था, इन धड़कनों में, जब शोर था,
गूँजती थी, दिल की बातें,
जगाती थी, वो कितनी ही रातें,
अब है गुमसुम सा, वो खुद बेचारा!
है वक्त का, ये खेल सारा,
बेरहम, वक्त के, पाश में जकड़ा,
भाव-शून्य है, बिन भावनाओं में डोले!

वर्षों हुए थे, इस दिल को टटोले.....

देखा तो, लगा चुप सा, वो बहुत आजकल,
जैसे, खुद में ही सिमटा,
था अपनी ही, सायों से लिपटा,
न था साथी कोई, न था कोई सहारा!
तन्हाईयों में वर्षों गुजारा,
फिरता रहा था, वो मारा-मारा,
बिन होंठ खोले, बिना कोई बात बोले!

वर्षों हुए थे, इस दिल को टटोले.....

वो रात थी, गुजरे दिनों की ही, कोई बात थी,
कई प्रश्न, उसने किए थे,
बिन बात के, हम लड़ पड़े थे,
बस कहता रहा, वो है साथी हमारा!
संग तेरे ही, बचपन गुजारा,
था तेरी यौवन का, मैं ही सहारा,
खेल, न जाने कितने, हमने संग खेले!

वर्षों हुए थे, इस दिल को टटोले.....

गिनते थे कभी, जिस दिल की, धड़कनें हम,
अनसुनी थी, वो धड़कनें,
ना ही कोई, आया उसे थामने,
टूटा था, उस दिल का, भरम सारा!
संवेदनाओं से, वो था हारा,
फिर भी, धड़कता रहा वो बेचारा,
बिन राज खोले, बिना कोई लफ्ज़ बोले!

वर्षों हुए थे, इस दिल को टटोले.....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Friday, 19 April 2019

वादों का नया संस्करण

रुक गए थे जहाँ, पल भर को कदम,
ठहरी है वहीं, वो ठंढ़ी सी पवन,
और बिखरे हैं वहीं, रूठे से कई ख्वाब भी,
चलो मिल आएं हम,
फिर, ख्वाबों से, उन्ही पगडंडियों पर!

लहराए थे तुमने, कभी आँचल जहाँ,
सूना सा है, आजकल वो जहां,
रह रही हैं वहाँ, कुछ चुभन और तन्हाईयाँ,
चलो मिटा आएं हम,
फिर, ये तन्हाईयाँ, उन्हीं पगडंडियों पर!

रख दिए थे जहाँ, मन के सारे भरम,
कहीं होके जुदा, तुम और हम,
न जाने उनपर हुए, वक्त के कितने सितम,
चलो तोड़ आएं हम,
फिर वो भरम, उन्हीं पगडंडियों पर!

जहाँ वादों का था, इक नया संस्करण,
हुआ ख्वाबों का, पुनर्आगमण,
शायद बनने लगे, भ्रम के नए समीकरण,
चलो कर आएं हम,
फिर कुछ वादे, उन्हीं पगडंडियों पर!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Monday, 15 April 2019

पूछती है राहें

न जाने क्यूँ, इक मुझे ही टोक कर,
शायद, तन्हा सफर में देख कर!
थाम कर मेरी बाहें, पूछती है मुझसे ही राहें....

तुम तो हो, बस इक मुसाफिर,
तुम भी, गुजर ही जाओगे,
मैं हूँ इक राह बस, फिर लौट कर न आओगे!

गुजरे कई, गुजरी न ये तन्हाई,
सह गई, विरह और जुदाई,
वर्षों मैं तन्हा रही, क्षणभर न ऐसे रह पाओगे!

इक आग में, मैं सदियों जली,
बिना अनुराग, वर्षों पली,
राहगीर हो तुम, छाँव राहतों के न दे पाओगे!

मिले कई, अपना सा न मिला,
मन में रहा, बस ये गिला,
अपने तो हो तुम भी, अपनापन न दे पाओगे!

अनगिनत रास्ते, हैं तेरे वास्ते,
एक तुझसे, मेरा वास्ता,
हर शै छोड़ गई तन्हा, तुम भी छोड़ जाओगे!

मन पर अंकित हैं, ये रेखाएँ,
जख्म किसे दिखलाएँ,
रेखाएँ के इक मकरजाल, तुम भी दे जाओगे!

न जाने क्यूँ, इक मुझे ही टोक कर,
शायद, तन्हा सफर में देख कर!
थाम कर मेरी बाहें, पूछती है मुझसे ही राहें....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Thursday, 20 December 2018

ढूंढ लें खुद को

कब तलक, बिसार दें खुद को!
चल कहीं, अमराइयों में ढूंढ लें खुद को....

मैं! न जाने मुझमें हूँ कहाँ?
इस भीड़ में, अस्तित्व मेरा है कहाँ?
तड़प है, घुटन है हर तरफ यहाँ,
इशारे, कर रही है रानाईयाँ,
चल कहीं, रानाईयों में ढूंढ लें खुद को....

कलियाँ, चटकती है जहाँ!
खुश्बू, हवाओं में बिखरती है जहाँ!
प्रशस्त साँसें, खुलती हैं जहाँ!
फैलाती हों दामन वादियां,
चल कहीं, वादियों में ढूंढ लें खुद को....

छू लेगी तन, जब मीठी पवन,
गुद-गुदाएगी तन, हलकी सी छुअन,
मिल लूंगा तब, मैैं खुद से वहाँ,
बातें चंद कर लेंगी तन्हाईयाँ,
चल कहीं, तन्हाईयों में ढूंढ लें खुद को....

मैं कहूँ! खुद की सुन सकूँ!
मन की अपने, कही कुछ पढ़ सकूँ,
लिख सकूँ, कर सकूँ कुछ बयाँ,
मैं भी खिला लूँ अमराइयाँ,
चल कहीं, अमराइयों में ढूंढ लें खुद को....

झूठ ही, कब तलक बिसार दें खुद को....

Thursday, 18 October 2018

इंतजार

बस यूँ ही, उनसे हुई थी गुफ्तगू दो चार,
शायद उन्हें था, उस तूफाँ के गुजर जाने का इंतजार!

था मुझे भी एक ही इंतजाार...,
वो तूफाँ, गुजरता रहे इसी राह हर-बार!
होती रही अनवरत बारिशें,
दमकती रहे दामिनी, गरजते रहें बादल,
लड़खड़ाते रहें उनके कदम,
रुकते रहें, दर मेरे ही वो बार-बार.....

था सदियों किया मैंने इंतजार...,
एक पल, काश वो मुझ संग लेते गुजार!
सजाता मैं तन्हाई अपनी,
रोकता उन्हें, थामकर उनका ही आँचल,
या रोक देता वक्त के कदम,
मिन्नतें यही, मैं करता उनसे हजार....

था शायद उन्हें भी ये इंतजार....,
कोई सदा, कर गई थी उन्हे भी बेकरार!
दमकने लगी थी दामिनी,
गरजने लगे थे, कयामत के वही बादल,
निकल पड़े थे उनके कदम,
चौखट मेरे, आ पड़े वो पहली बार....

बस यूँ ही, उनसे हुई थी गुफ्तगू दो चार,
न था अब उन्हें, किसी तूफाँ के गुजरने का इंंतजार!

Tuesday, 31 July 2018

तन्हाईयाँ

हँस ले जी भर के,
आज मुझपे ऐ तन्हाईयाँ,
सजेंगी महफिलें,
तब आऊंगा बुलाने मैं तुझे,
जल जाएगा तू भी,
देखकर मेरी कहकशाँ....

चलो ये माना कि,
तन्हा है आज हम यहाँ,
न है वो काफिले,
न ही है सितारों का कारवाँ,
पर ये न समझो,
कि गमगीन हैं हम यहाँ....

गूंज हूं मैं अकेला,
संग गूंजेंगी ये विरानियाँ,
दो पग भी चले,
बन ही जाएंगी पगडंडियाँ,
पथिक भी होंगे,
यूं ही बजेंगी शहनाईयाँ....

झेंप जाओगे फिर,
देख मुझको ऐ तन्हाईयाँ,
आ मिल ले गले,
है बेकार की ये रुशवाईयाँ,
क्यूं शिकवे पले,
क्यूं ये शिकायत साथिया....

Friday, 26 January 2018

हे ईश्वर

हे ईश्वर! कर मेरी प्रार्थना स्वीकार...
मत देना तुम मुझको, ऐसा कोई प्रभात!

बिन बात जहाँ, बढ जाती हो विवाद,
बिन पतझड़ ही, बिखर जाते हों पात,
बादल के रहते, सूखी सी हो बरसात,
खुशियों के पल, मन में हो अवसाद....

हे ईश्वर! कर मेरी प्रार्थना स्वीकार....
मत देना तुम मुझको, ऐसी कोई भी रात!

सितारों बिन जहाँ, सूना हो आकाश,
बिन जुगनू जहाँ, अंधेरा हो ये प्रकाश,
एकाकीपन हो, मृत हो मन के आश,
ये राहें ओझल हो, खोया हो उल्लास...

हे ईश्वर! कर मेरी प्रार्थना स्वीकार.....
मत देना तुम मुझको, ऐसा कोई भी पल!

बिन जीवन संगी, साँसे हो बोझिल,
बिन हमराही के, ये राहें हो मुश्किल,
अकेलापन हो, गम में हो महफिल,
जग के मेले में, तन्हाई हो हासिल...

हे ईश्वर! कर मेरी प्रार्थना स्वीकार.....
मत देना तुम मुझको, ऐसा कोई विषाद!

परछाँई

उस तारे को देखना, नजर मैं ही आऊँगा...

मैं आज भले हूँ सामने,
कल शायद ना रह पाऊँगा!
शब्दों के ये तोहफे,
फिर तुझे ना दे पाऊँगा!
दिन ढ़ले इक टीस उठे जब,
उस तारे को देखना, नजर मैं ही आऊँगा...

हूँ बस इक परछाँई मैं,
शब्दों में ही ढ़लता जाऊँगा!
कुरेदुँगा भावों को मै,
मन में ही बसता जाऊँगा!
सांझ ढ़ले ये अश्क गले जब,
उस तारे को देखना, नजर मैं ही आऊँगा...

लिख जाऊँगा गीत कई,
इन नग्मों में ही बस जाऊँगा!
भाव पिरोकर शब्दों में,
अश्कों में बहता जाऊँगा!
मन की महफिल सूनी हो जब,
उस तारे को देखना, नजर मैं ही आऊँगा...

न बाट जोहना तुम मेरा,
कल वापस भी न आ पाऊँगा!
यादों की किताब बन,
"कविता कलश" दे जाऊँगा!
कभी हो जीवन में तन्हाई जब,
उस तारे को देखना, नजर मैं ही आऊँगा...

मैं, आज भले हूँ सामने.......
कल शायद!  ना.... रह पाऊँगा..!
इक कविता "जीवन कलश"....
मैं आँचल में रखता जाऊँगा!
एकाकीपन के अंधेरे हों जब-जब,
उस तारे को देखना, नजर मैं ही आऊँगा...

Thursday, 18 January 2018

दिल की सरखत

दिल की सरखत पे मेरे,
तुम दस्तखत किए जाते हो.....
मेरी बातों में तुम, यूँ शामिल हुए जाते हो....

बड़ी सूनी थी ये सरखत,
हर पन्ने मे तुम नजर आते हो,
मेरी तन्हाईयो में तुम, यूँ ही चले आते हो....

हर लम्हा इन्तजार तेरा,
यूँ बेवशी तुम दिए जाते हो,
इन ख्यालों को तुम मेरे, यूँ हीं भरमाते हो....

छू गई हो जैसे ये बदन,
यूँ सर्द हवाओं मे लहराते हो,
जैसे हो कोई पवन, यूँ ही तुम बहे जाते हो....

यूँ गूंजती हैं ये फिजाएँ,
ज्युँ तुम संग ये गुनगुनाते हो,
तेरे गीतों की लय पे, यूँ ही ये झूम जाते हों....

दिल की सरखत पे मेरे,
तुम दस्तखत किए जाते हो.......
ख्वाबों में रंग कई, यूँ ही तुम भरे जाते हो....

Saturday, 23 September 2017

सैकत

असंख्य यादों के रंगीन सैकत ले आई ये तन्हाई,
नैनों से छलके है नीर, उफ! हृदय ये आह से भर आई!

कोमल थे कितने, जीवन्त से वो पल,
ज्यूँ अभ्र पर बिखरते हुए ये रेशमी बादल,
झील में खिलते हुए ये सुंदर कमल,
डाली पे झूलते हुए ये नव दल,
मगर, अब ये सारे न जाने क्यूँ इतने गए हैं बदल?

उड़ते है हर तरफ ये बन के यादों के सैकत!
ज्यूँ वो पल, यहीं कहीं रहा हो ढल!
मुरझाते हों जैसे झील में कमल,
सूखते हो डाल पे वो कोमल से दल,
हृदय कह रहा धड़क, चल आ तू कहीं और चल!

उड़ रही हर दिशा में, रंगीन से असंख्य सैकत,
बिंधते हृदय को, यादों के ये तीक्ष्ण सैकत,
नैनों में आ धँसे, कुछ हठीले से ये सैकत,
अभ्र पर छा चुके है नुकीले से ये सैकत,
जाऊँ किधर! ऐ दिल आता नही  कुछ भी नजर?

असंख्य यादों के रंगीन सैकत ले आई ये तन्हाई,
नैनों से छलके है नीर, उफ! हृदय ये आह से भर आई!

Sunday, 16 April 2017

गूंजे है क्युँ शहनाई

क्युँ गूँजती है वो शहनाई, अभ्र की इन वादियों में?

अभ्र पर जब भी कहीं, बजती है कोई शहनाई,
सैकड़ों यादों के सैकत, ले आती है मेरी ये तन्हाई,
खनक उठते हैं टूटे से ये, जर्जर तार हृदय के,
चंद बूंदे मोतियों के,आ छलक पड़ते हैं इन नैनों में...

क्युँ गूँजती है वो शहनाई, अभ्र की इन वादियों में?

ऐ अभ्र की वादियाँ, न शहनाईयों से तू यूँ रिझा,
तन्हाईयों में ही कैद रख, यूँ न सोए से अरमाँ जगा,
गा न पाएंगे गीत कोई, टूटी सी वीणा हृदय के,
अश्रु की अविरल धार कोई, बहने लगे ना नैनों से....

क्युँ गूँजती है वो शहनाई, अभ्र की इन वादियों में?

निहारते ये नैन अपलक, न जाने किस दिशा में,
असंख्य सैकत यादों के, अब उड़ रही है हर दिशा में,
खलबली सी है मची, एकांत सी इस निशा में,
अनियंत्रित सा है हृदय, छलके से है नीर फिर नैनों में....

क्युँ गूँजती है वो शहनाई, अभ्र की इन वादियों में?