बरसों ढ़ले, सांझ तले, तुम कौन मिले!
फिर पनपा, इक आस,
फिर जागे, सुसुप्त वही एहसास,
फिर जगने, नैनों में रैन चले!
बरसों ढ़ले, सांझ तले, तुम कौन मिले!
फिर पंकिल, नैन हुए,
फिर, कल-कल उमड़ी करुणा,
फिर स्नेह, परिधि पार चले!
बरसों ढ़ले, सांझ तले, तुम कौन मिले!
फिर मिली, वही व्यथा,
फिर, झंझावातों सी बहती सदा,
फिर एकाकी, दिन-रैन ढ़ले!
बरसों ढ़ले, सांझ तले, तुम कौन मिले!
फिर ढ़ली, उमर सारी,
सुसुप्त हुई, कल्पना की क्यारी,
इक दीपक, सा मौन जले!
बरसों ढ़ले, सांझ तले, तुम कौन मिले!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
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