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Friday, 26 May 2017

मदान्ध

होकर मदान्ध सौंदर्य में, तू क्यों इतना इतराए रे....

ऐ पुष्प तू है कोमल, तू है इतनी स्निग्ध,
गिरी टूटकर जो शाखाओ से, है तेरा बचना संदिग्ध,
हो विकसित नव प्रभात में, संध्या तू कुम्हलाए रे,
चटकीली रंगों पर फिर क्युँ इतना इठलाए रे।

होकर मदान्ध सौंदर्य में, तू क्यों इतना इतराए रे....

वो देखो पंखुड़ियों के, बिखरे है अवशेष,
तल्लीन होकर जरा तू पढ़ ले, है इनमें कुछ सन्देश,
शालीन प्रारम्भ के अंतस्थ ही तो अंत समाया रे,
क्षणभंगुर उपलब्धि पर क्युँ इतना इठलाए रे।

होकर मदान्ध सौंदर्य में तू क्यों इतना इतराए रे....

अस्त होते ही दिनकर,जीवन होगा व्यतीत,
किन्तु कहना इस अंतराल में तुम्हे कैसा हुआ प्रतीत,
अलिदल का गूंज बृथा था, जिसने गंध चुराया रे,
सप्तदल इक मृषा था फिर तू क्यूँ इठलाए रे।

होकर मदान्ध सौंदर्य में तू क्यों इतना इतराए रे....