Sunday, 30 April 2023

मूंदो तो पलकें

मूंदो तो पलकें,
और, छू लो, उन बूंदों को,
जो रह-रह छलके!

हो शायद, नीर किसी की नैनों का,
आ छलका हो, पीर उसी का,
या गाते हों, कोई गीत,
समय की धुन पर, हलके-हलके!

मूंदो तो पलकें!

समझ पाओगे, डूबे नैनों में है क्या,
बहता सा क्यूं वो इक दरिया,
झर-झर, बहते वे धारे,
हर-दम रहते क्यूं, छलके-छलके!

मूंदो तो पलकें!

विचलित क्यूं सागर, शायद जानो,
हलचल उसकी भी पहचानो,
तड़पे क्यूं, आहत सा,
लहरें तट पर, क्यूं, बहके-बहके!

मूंदो तो पलकें!

चुप-चुप हर शै, जाने क्या कहता,
बहते से, एहसासों में रमता,
कभी, भर आए मन,
जज्बात कभी ये, लहके-लहके!

मूंदो तो पलकें,
और, छू लो, उन बूंदों को,
जो रह-रह छलके!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 13 April 2023

याद

बांध गया कोई, अपनी ही यादों से!

वो दिन थे या, पलक्षिण थे,
पहर गुजरा, अलसाया सा दिन गुजरा, 
रात गई, जुगनू की बारात गई,
युग बीता, उन जज्बातों से!

बांध गया कोई, अपनी ही यादों से!

भटके मन, उन गलियों में,
आहट जिनसे, उन पल की ही आए,
उम्मीदें, उन लम्हातों से ही बांधे,
बिखरे खुद, जो हालातों से!

बांध गया कोई, अपनी ही यादों से!

अक्सर, आ घेरे वो लम्हा,
पूछे मुझसे, वो था क्यूं इतना तन्हा!
सिमट गए, क्यूं, बलखाते पल!
बारिश की, भींगी रातों से!

बांध गया कोई, अपनी ही यादों से!

चांद ढ़ले, जब तारों संग,
बिखराए, उनके ही, आंचल के रंग,
सुधि हारे दो नैन दिवस ही भूले,
झिलमिल सी, उन बातों में!

बांध गया कोई, अपनी ही यादों से!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 25 March 2023

वो आप थे


जो सर्दियों में, खिली धूप थी गुनगुनी,
वो आप थे!

तभी तो, वो एहसास था,
सर्द सा वो हवा भी, बदहवास था,
कर सका, ना असर,
गर्म सांसों पर,
सह पे जिसकी, करता रहा अनसुनी,
वो आप थे!

जो सर्दियों में, खिली धूप थी गुनगुनी,
वो आप थे!

खुलने लगी, बंद कलियां,
प्रखर होने लगी, गेहूं की बलियां,
वो, भीनी सी, खुश्बू,
हर सांस पर,
बस करती रही, अपनी ही मनमानी,
वो आप थे!

जो सर्दियों में, खिली धूप थी गुनगुनी,
वो आप थे!

सर्द से, वो पल भूलकर,
गुनगुनी, उन्हीं बातों में घुलकर,
गुम से, हो चले हम,
जाने किधर!
अब भी, धुन पे जिसकी रमाता धुनी,
वो आप थे!

जो सर्दियों में, खिली धूप थी गुनगुनी,
वो आप थे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 19 March 2023

इन दिनों

उन दिनों, हम गुम थे कहीं...
चुप थी राहें!
गुम कहीं, उन कोहरों में किरण,
मूक, मन का हिरण,
पुकारता किसे!

बे-आवाज, पसरी वो राहें...
संग थी मेरे,
चल पड़ा, चुनकर वो एक पंथ,
लिए सपनों का ग्रंथ,
अपनाता किसे!

बह चला, वक्त का ढ़लान...
वो इक नदी,
बहा ले चली, कितनी ही, सदी,
बह चले, वो किनारे,
संवारता किसे!

दिवस हुआ, अवसान सा...
रंग, सांझ सा,
डूबते, क्षितिज के वे ही छोर,
बुलाए अपनी ओर,
ठुकराएं कैसे!

इन दिनों, हम चुप से यहां...
वे क्षण कहां!
पर बिखरे हैं, फिर वो ही कोहरे,
गगन पे, वो ही घन,
निहारता जिसे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 17 March 2023

उम्र की क्या खता


उम्र की क्या खता, वक्त तू ही बता!

तेरी ही सिलवटों से, झांकता,
भटकता, इक राह तेरी,
ढूंढता, धुंधली आईनों में,
खोया सा पता!

उम्र की क्या खता, वक्त तू ही बता!

इक धार तेरी, सब दी बिसार,
बहाए ले चली, बयार,
उन्हीं सुनसान, वादियों में,
ढूंढ़ू तेरा पता!

उम्र की क्या खता, वक्त तू ही बता!

लगे, अब आईना भी बेगाना,
ढ़ले, सांझिल आंगना,
दरकते कांच जैसे स्वप्न में,
भूल बैठा पता!

उम्र की क्या खता, वक्त तू ही बता!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 24 February 2023

मतलबी

अबकी भी, बड़ी, प्रीत लगी मतलबी!

ऐ सखी, किन धागों से मन बांधूं?
कित ओर, इसे ले जाऊं,
कैसे बहलाऊं!
अजनबी ये, प्रीत लगी बड़ी मतलबी!

जीर्ण-शीर्ण, मन के दोनों ही तीर,
ना ही, चैन धरे, ना धीर,
बांध कहां पाऊं!
यूं बींध सी गई, ये प्रीत बड़ी मतलबी!

किंचित भान न था, छल जाएगा!
दु:ख देकर, खुद गाएगा,
अब, यूं घबराऊं!
यूं दुस्वार लगे, ये प्रीत, बड़ी मतलबी!

ऐ सखी, कित मन को समझाऊं?
इसे और कहां, ले जाऊं,
कैसे दोहराऊं!
अबकी भी, लगी, प्रीत बड़ी मतलबी!

अजनबी ये, प्रीत लगी बड़ी मतलबी!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 23 February 2023

रंग-बेरंग फागुन

रिक्त क्षणों में, रंग कोई भर देता,
तो यूं, फागुन न होता!

हँसते, वे लम्हे, बहते, वे लम्हे,
कुछ कहते-कहते, रुक जाते वे लम्हे,
यूं रिक्त, न हो जाते,
सिक्त पलों से,
कुछ रंग भरे, पल चुन लेता!

तो यूं, फागुन न होता!

हवाओं की, सरगोशी सुनकर,
यूं न हँसती, बेरंग खामोशी डसकर,
गीत, कई बन जाते,
गर, वो गाते,
राग भरे, आस्वर चुन लेता!

तो यूं, फागुन न होता!

यूं तो बिखरे सप्तरंग धरा पर,
पथराए नैन, कितने बेरंग यहां पर,
स्वप्न, वही भरमाते,
जो भूल चले,
स्वप्न वो ही, फिर रंग लेता!

रिक्त क्षणों में, रंग कोई भर देता,
तो यूं, फागुन न होता!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday, 20 February 2023

आसार

कैसे गढ़ पाऊं, श्रृंगार!

ना फूल खिले, 
ना खिलने के आसार!
ठूंठ वृक्ष, ठूंठ रहे सब डाली,
पात -पात सब सूख रहे,
सूख रही हरियाली,
ना बूंद गिरे, 
ना ही, बारिश के आसार!

कैसे गढ़ पाऊं, श्रृंगार!

ना रात ढ़ले, 
ना किरणों के आसार!
गहन अंधियारे, डूबे वो तारे,
उम्मीदों के आसार कहां,
उम्मीदों से ही हारे,
ना चैन मिले,
ना ही, नींदिया के आसार!

कैसे गढ़ पाऊं, श्रृंगार!

ना मीत मिले,
ना मनसुख के आसार!
रूखा-रूखा, हर शै रूठा सा,
मधुकण के आसार कहां,
मधुबन से ही हारे,
ना रास मिले,
ना ही, रसबूंदो के आसार!

कैसे गढ़ पाऊं, श्रृंगार!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 19 February 2023

पल सारे

गिनता रहा मैं, ठहरे वो पल सारे,
थे, जो,
कुछ तुम्हारे, कुछ हमारे!

शान्त थे बड़े, बड़े निष्काम थे,
पल वो ही, तमाम थे,
बह चली थी, जिस ओर, जिन्दगी,
ठहरी, वक्त की वो ही धार,
बनी आधार थी,
बस, गिनता रहा मैं ....

थे, जो,
कुछ तुम्हारे, कुछ हमारे!

असीमित चंचलता, यूं सिमेटे,
समय, खुद में लपेटे,
देकर, ठहरी जिंदगी को, चपलता,
एक सूने मन को, चंचलता,
रही यूं रोकती,
बस, देखता रहा मैं .....

थे, जो,
कुछ तुम्हारे, कुछ हमारे!

मंत्रमुग्ध करते, वो स्निग्ध पल,
ओढ़े, होठों पे छल,
रही खींचती, बस, अपनी ही ओर,
कैसी, अनोखी सी वो डोर,
कैसा ये ठौर,
बस, ठहरा रहा मैं .....

गिनता रहा मैं, ठहरे वो पल सारे,
थे, जो,
कुछ तुम्हारे, कुछ हमारे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 12 February 2023

दबी परछाईयां

यहीं रह गई परछाईयां, दब कर कहीं!

यूं जम गए, गम के बादल,
ढ़ल चुका, बेरंग आंचल सांझ का,
चुप रह गई, मुझ संग,
तन्हाईयां मेरी!

यहीं रह गई परछाईयां, दब कर कहीं!

यूं विहंसते, वो फूल कैसे,
मुरझाते रहे, आस में जो धूप के,
बिन खिले ही, रह गए,
रंग सारे कहीं!

यहीं रह गई परछाईयां, दब कर कहीं!

छुप गई, रुत किस ओर,
रुख-ए-रौशन, ज्यूं बन गए बुत,
यूं बुलाते ही, रह गए,
ये ईशारे कहीं!

यहीं रह गई परछाईयां, दब कर कहीं!

यूं थम गए, बढ़ते ये कदम,
ज्यूं थक चुके, ये बादल, वो गगन,
सिमटकर, संग रह गई,
परछाईयां मेरी!

यहीं रह गई परछाईयां, दब कर कहीं!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)