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Friday, 24 February 2023

मतलबी

अबकी भी, बड़ी, प्रीत लगी मतलबी!

ऐ सखी, किन धागों से मन बांधूं?
कित ओर, इसे ले जाऊं,
कैसे बहलाऊं!
अजनबी ये, प्रीत लगी बड़ी मतलबी!

जीर्ण-शीर्ण, मन के दोनों ही तीर,
ना ही, चैन धरे, ना धीर,
बांध कहां पाऊं!
यूं बींध सी गई, ये प्रीत बड़ी मतलबी!

किंचित भान न था, छल जाएगा!
दु:ख देकर, खुद गाएगा,
अब, यूं घबराऊं!
यूं दुस्वार लगे, ये प्रीत, बड़ी मतलबी!

ऐ सखी, कित मन को समझाऊं?
इसे और कहां, ले जाऊं,
कैसे दोहराऊं!
अबकी भी, लगी, प्रीत बड़ी मतलबी!

अजनबी ये, प्रीत लगी बड़ी मतलबी!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 7 July 2022

जुदा-जुदा


जुदा-जुदा सा लगे, ये दो पल,
चल, कहीं दूर, इन फासलों से निकल!

अभी थे यहीं, इस पल में कहीं,
ले चला, ये पल, और मुझको कहीं,
उस पल, संग तुम थे,
और, ये पल, बड़े अजनबी,
क्या था पता!
ये दो पल, हैं कितने जुदा!

थे पहचाने से, वो पल के साए,
लगे अंजान, इस पल के, सरमाए,
है बदली सी, धुन कोई,
और, बेगाना सा, हर तराना,
अन-मना सा!
गीत, पल के, कितने जुदा!

हो जाएं, न यूं कहीं अजनबी,
यूं ना, भूल जाएं पल के महजबीं,
रंग सारे, हलके हलके,
भींच कर, मूंद लूं, ये पलकें,
अलहदा सा!
है ये रुप रंग, कितने जुदा!

जुदा-जुदा सा लगे, ये दो पल,
चल, कहीं दूर, इन फासलों से निकल!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 21 November 2021

पुरानी तस्वीरें

बिखर सी गई, कितनी ही, परछाईंयाँ,
उलझकर, जालों में रह गई कितनी ही तस्वीरें,
कभी झांकती है, वे ही दरों-दीवार से!

अजनबी से, हो चले, किरदार कई,
गैरों में अपना सा कोई, गैर से, अपनों में कई,
महकते फूल, या, राह के वो शूल से!

ले गए जो, पल शुकून के, मेरे सारे,
वो ही कभी, कर जाते हैं विचलित, कर इशारे,
वही, छूकर गुजर जाते हैं करीब से!

पछतावा, उन्हें भी तो होगा शायद,
लिख सकी ना, जिनकी कहानी, कोई इबारत,
शिकायत क्या करे, बे-रहम वक्त से!

मिट सी गई, कितनी जिन्दगानियाँ,
लिपट कर वो फूलों में, बन गई पुरानी तस्वीरें,
झांकते है वो ही, इस दरों-दीवार से!

उभरती हैं कोई, शख्सियत अंजानी,
लिख गईं जो, इस दरों-दीवार पर इक कहानी,
पढ़ रहे सब, वो कहानी, अब गौर से!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 12 June 2021

प्रवाह में

उजली सी, राह में,
जिन्दगी के, इस प्रवाह में, 
बाकी रह गई,
इक अजनबी सी, 
चाह शायद!

है बेहद, अजीब सा मन!
हासिल है सब,
पर अजीज है, बस चाह वो,
है अजनबी,
पर है, खास वो,
दूर है,
पर है, पास वो,
ख्वाब है,
कर रहा, है बेताब वो,
कुछ फासलों से,
यूँ, गुजर चुके हैं, चाह शायद!

सफर में, साथ में,
वही तस्वीर लिए, हाथ में, 
बाकी रह गई,
इक अजनबी सी, 
चाह शायद!

मौन है वो, पर गौण नहीं!
ये तोलती है मन,
झकझोरकर, टटोलती है मन,
कभी, सुप्त वो,
है कभी, जीवन्त वो,
अन्तहीन सा,
प्रवाह, अनन्त वो,
आस-पास वो,
मन ही, किए वास वो,
कभी, आहटों से,
तोड़ती है मौन, चाह शायद!

ज्वलन्त रात में,
जलते वही हैं, चाह शायद!
बाकी रह गई,
कोई अजनबी सी,
चाह शायद!

अजनबी सी, इस राह में!
यूँ तो, मिला था,
कई अजनबी सी, चाह से,
कुछ, प्रबल हुए,
कुछ, बदल से गए,
कुछ, गुम हुए,
कुछ, पीछे ही पड़े,
रूबरू हो कर,
इस राह में,
कई अलविदा, कह गए,
अजनबी से कुछ,
अब भी बचे, चाह शायद!

मन की वादियों में,
वही ढूंढते हैं, राह शायद!
बाकी रह गई,
कोई अजनबी सी,
चाह शायद!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 7 July 2020

फासले

निष्क्रिय से हैैं, आकर्षण,
विलक्षणताओं से भरे वो क्षण,
गुम हैं कहीं!

सहज हों कैसे, विकर्षण के ये क्षण!
ये दिल, मानता नहीं,
कि, हो चले हैं, वो अजनबी,
वही है, दूरियाँ,
बस, प्रभावी से हैं फासले!

यूँ ही, हो चले, तमाम वादे खोखले!
गुजरना था, किधर!
पर जाने किधर, हम थे चले,
वही है, रास्ते,
पर, मंजिलों से है फासले!

हर सांझ, बहक उठते थे, जो कदम,
बहके हैं, आज भी,
टूटे हैं प्यालों संग, साज भी,
वहीं है, सितारे,
बस, गगन से हैं फासले!

मध्य सितारों के, छुपे अरमान सारे,
उन बिन, बे-सहारे,
चल, अरमान सारे पाल लें,
सब तो हैं वहीं,
यूँ सताने लगे हैं फासले!

निष्क्रिय से हैैं, आकर्षण,
विलक्षणताओं से भरे वो क्षण,
गुम हैं कहीं!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 10 March 2020

घुले गुलाल

हर सवाल, यूँ ही बन उड़े गुलाल!

अंग-अंग, घुल चुके अनेक रंग,
लग रहे हैं, एक से,
क्या पीत रंग, क्या लाल रंग?
गौर वर्ण या श्याम वर्ण!
रंग चुके एक से,
हुए हैं आज हल, कई सवाल!

हर सवाल, यूँ ही बन उड़े गुलाल!

प्रश्नों की झड़ी, यूँ ही थी लगी,
भिन्न से, सवाल थे!
बड़े ही अजीब से, जवाब थे!
वो अजनबी से जवाब,
एक स्वर में ढ़ले,
धुल चुके हैं आज, हर मलाल!

हर सवाल, यूँ ही बन उड़े गुलाल!

अभिन्न से बने, वो विभिन्न रंग,
ढ़ंके रहे, गुलाल से,
सर्वथा भिन्न-भिन्न, से ये रंग!
बड़े अजीज, हैं ये रंग,
हरेक प्रश्न से परे,
खुद गुलाल, कर रहे सवाल!

हर सवाल, यूँ ही बन उड़े गुलाल!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

होली 2020
सामाजिक समरसता की कामनाओं सहित बधाई

Monday, 6 May 2019

अजनबी शहर

अब न खोलता हूँ, मैं दर उधर का,
न जाने वो, रास्ता है किधर का?

कभी उस तरफ, था ये दिल हमारा,
तन्हा सा रहा, वहाँ वर्षों बेचारा!

तृष्णगि थी, दिल में रही ये कमी थी,
मेरे ही काम की, न वो ज़मीं थी!

अन्जाने शक्ल थे, अपना न था कोई,
भीड़ में वहीं, ये आत्मा थी खोई!

वैसे तो रोज ही, कई लोग थे मिलते,
रंगीन थे मगर, ग॔धहीन थे रिश्ते!

छोड़ आया हूँ, कहीं पीछे मैं वो शहर,
मन की गाँव सा, है ना वो शहर!

न कोई जानता, है मुझको अब उधर,
बड़ा ही अजनबी सा, है वो शहर!

अब न खोलता हूँ, मैं दर उधर का,
न जाने वो, रास्ता है किधर का?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Wednesday, 14 November 2018

अजनबी चाह

बाकी रह गई है,
कोई अजनबी सी चाह शायद....

है बेहद अजीब सा मन!
सब है हासिल,
पर अजीज है, बस चाह वो,
है अजनबी,
पर है खास वो,
दूर है,
पर है पास वो,
ख्वाब है,
कर रहा है बेताब वो,
कुछ फासलों से,
यूँ गुजर रहे हैं, चाह शायद!

सफर में साथ में,
रहते वही हैं, चाह शायद!
बाकी रह गई है...
कोई अजनबी सी चाह शायद....

मौन है ये, पर गौण नहीं!
ये तोलती है मन,
झकझोरकर, टटोलती है मन,
कभी सुप्त ये,
है कभी जीवन्त ये,
अन्तहीन सा,
प्रवाह अनन्त ये,
आस-पास ये
मन ही, किए वास ये,
कभी आहटों से,
तोडती है मौन, चाह शायद!

ज्वलन्त रात में,
जलते वही हैं, चाह शायद!
बाकी रह गई है...
कोई अजनबी सी चाह शायद....

अजनबी से इस राह में!
यूँ तो मिला मैं,
कई अजनबी सी चाह से,
कुछ प्रबल हुए,
कुछ बदल से गए,
कुछ गुम हुए,
कुछ पीछे ही पड़े,
रूबरू हो कर,
इस राह में,
कई अलविदा कह गए,
अजनबी से कुछ,
अब भी बचे हैं, चाह शायद!

मन की वादियों में,
वही ढूंढते हैं, राह शायद!
बाकी रह गई है...
कोई अजनबी सी चाह शायद....

Thursday, 9 November 2017

न आना अब

वो कौन है जो दस्तक, देकर गया मेरे दर तक?

शायद अजनबी कोई!
या शख्स पहचाना सा कोई?
बिसारी हुई बातें कोई!
या यादों की इक कहानी कोई!

वो कौन है जो लौटा, दस्तक देकर मेरे घर तक?

बेचैन कर गया कोई!
नींदे मेरी लेकर गया कोई!
इन्तजार दे गया कोई!
सुकून मन का ले गया कोई!

वो कैसी थी दस्तक, न मिलती है दिल को राहत?

ऐसा तो न था कोई!
दुश्मन तो मेरा न था कोई!
वो पागल होगा कोई?
या नशे में बहका होगा कोई?

वो दे गया ऐसी दस्तक, दुविधा में रहा मैं देर तक?

अब बीते हैं दिन कई,
दस्तक फिर दे रहा था कोई!
बाहर न खड़ा था कोई!
चुप, बुत सा मैं अकेला था वहीं!

एकाकीपन की दस्तक, न आना अब मेरे दर तक...

Tuesday, 17 May 2016

अजनबी भँवरा

भँवरों के गीत सब, अजनबी हो चुके हैं अब,
गुनहुनाहटों में गीत की, अब कहाँ वो कसक,
थक चुका है वो भँवरा,  गीत गा-गा के अब।

वो भी क्या दिन थे, बाग में झूमता वो बावरा,
धुन पे उस गीत की,  डोलती थी कली-कली,
गीत अब वो गुम कहाँ, है गुम कहाँ वो कली।

जाने किसकी तलाश में अब घूमता वो बावरा,
डाल डाल घूमकर,  पूछता उस कली का पता,
बेखबर वो बावरा, कली तो हो चुकी थी फना।

अब भी वही गीत प्रीत के,  गाता है वो भँवरा,
धुन एक ही रात दिन, गुनगुनाता है वो बावरा,
अजनबी सा बाग में, मंडराता अब वो बावरा।

Monday, 8 February 2016

अजनबी

अजनबी से हर चेहरे यहाँ दिखते,
अजनबी से लोग बातें भी अजनबी सी करते,
सूबसूरत से किस्से लेकिन पराए से लगते।

अजनबी शहर ये रीत अजनबी से,
दीवानगी अजनबी सी मुफलिसी अजनबी से,
चेहरों पे चेहरे लगे हर किसी के यहाँ दिखते।

अजनबी लोग क्युँ अक्श सोचता मेरा!
दिखते सब हैं इक जैसे, पर सारे यहाँ अजनबी,
बेगानों की बस्ती मे रिश्ते भी अजनबी से लगते। 

गैरों से अपने अजनबी सा अपनापन,
रास्तोें की आहटें, रिश्तों की गर्माहटें यहाँ अजनबी,
खामोशियाँ तोड़ती हैं पत्तियों की बस सरसराहटें।