Thursday, 20 October 2016

दीपावली / दिवाली

इक दीप मन में जले, तम की भयावह रात ढ़ले...

है दुष्कर सी ढ़लती ये शाम,
अंधेरों की ओर डग ये पल-पल भरे,
है अंधेरी स्याह सी ये रात,
तिल-तिल सा ये जीवन जिसमें गले,
चाहूँ मैं वो दीपावली, जो ऊजाले जीवन में भरे....

है बुझ रही वो नन्ही सी दीप,
जूझकर तम से प्रकाश जिसने दिए,
है वो ईक आस का प्रतीक,
कुछ बूँद अपनी स्नेह के उसमें भरे,
मना लूँ मैं वो दीपावली, दीप आस का जलता रहे....

है संशय के विकट बादल घिरे,
अज्ञानता की घनघोर सी चादर लिए,
ताले विवेक पर हैं यहाँ जड़े,
प्रकाश ज्ञान का मन में अब कौन भरे?
मनाऊँ अब वो दीपावली, वैर, द्वेश, अज्ञान जले....

इक दीप मन में जले, तम की भयावह रात ढ़ले...

No comments:

Post a Comment