फिर कहीं खुद से मिल पाया था मैं.......
मन के इसी सूने से आंगन में,
फिर तुम्हारी ही यादों से टकराया था मैं,
बोल कुछ भी तो न पाया था मैं,
बस थोड़ा लड़खड़ाया था मै,
मुद्दतों बाद....
फिर कहीं खुद से मिल पाया था मैं.......
खिला था कुछ पल ये आंगन,
फूल बाहों में यादों के भर लाया था मैं,
खुश्बुओं में उनकी नहाया था मै,
खुद को न रोक पाया था मैं,
मुद्दतों बाद....
फिर कहीं खुद से मिल पाया था मैं.......
अब तलक थी वो मांग सूनी,
रंग हकीकत के वहीं भर आया था मैं,
उन यादो से अब न पराया था मैं,
डोली में बिठा लाया था मैं,
मुद्दतों बाद....
फिर कहीं खुद से मिल पाया था मैं.......
अब वापस न जा पाएंगे वो,
खुद को उस पल में छोड़ आया था मैं,
पल में सदियाँ बिता आया था मैं,
यादों मे अब समाया था मैं,
मुद्दतों बाद....
फिर कहीं खुद से मिल पाया था मैं.......
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना गुरुवार २५ अप्रैल २०१९ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
आभारी हूँ आदरणीय रेणु जी।
Deleteबहुत सुन्दर रचना
ReplyDeleteसादर
आभार अभिवादन आदरणीय अनीता जी।
Deleteवाह!!लाजवाब!
ReplyDeleteआभार अभिवादन आदरणीय शुभा जी।
Deleteपल में सदियाँ बिता आया था मैं,
ReplyDeleteयादों मे अब समाया था मैं,
वाह!!!
प्रेम के पल सदियों से...
बहुत ही लाजवाब।
आभार अभिवादन आदरणीय सुधा देवरानी जी।
Deleteआभार अभिवादन आदरणीय अमित जी।
ReplyDeleteआदरणीय पुरुषोत्तम जी, शब्द नगरी से आज तक जो कविताएँ मेरी पसंदीदा रही उनमें ये रचना अविस्मरणीय है। बहुत पसंद है मुझे। 2017 के बीते लम्हों में झांककर अच्छा लगा आज। बहुत प्यारे दिन थे वो और ये रचना बहुत प्यारी। अनुराग की तह तक झांकती हुई। 👌👌🙏🙏🌹🌹
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