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Friday, 18 March 2022

रंग

कुछ रंग ही तो, भरे थे हमनें,
तुम्हारी मांग में,
और तुमने, रंग डाले,
सारे, सपने मेरे!

और, आज भी, दैदिप्य सा है,
तुम्हारे भाल पर,
सफेद, बालों के मध्य,
वही, लाल रंग!

और इधर! चुप, मंत्र-मुग्ध मैं,
ताकूँ, वो ही रंग,
बिखरे, जो यकीन बन,
जिंदगी में, मेरे!

कुछ रंग ही तो, भरे थे हमनें,
बुने, कुछ ख्वाब,
और तुमने, रंग डाले,
सारे, ख्वाब मेरे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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परिकल्पनाओं में पलते, सारे रंग,
उम्र भर, रहें आप संग।।।

होली की अशेष शुभकामनाओं सहित.......

Wednesday, 13 November 2019

महावर

मेहंदी सजाए, महावर पांवों मेें लगाए!
हर सांझ, यूँ कोई बुलाए!

गीत कोई, फिर मैैं क्यूँ न गाऊँ?
क्यूँ न, रूठे प्रीत को मनाऊँ?
सूनी वो, मांग भरूं,
उन पांवों में, महावर मलूँ,
ये पायलिया जहाँ, रुनुर-झुनुर गाए!

हर सांझ, यूँ कोई बुलाए!

फिजाओं से, क्यूँ न रंग मांग लूँ?
फलक से, रंग ही उतार लूँ!
रंग, उन्हें हजार दूँ,
अंग-अंग, महावर डाल दूँ,
सिंदूरी सांझ सी, वो भी मुस्कुराए!

हर सांझ, यूँ कोई बुलाए!

कभी, पतझड़ों सा ये दिन लगे?
मन के, पात-पात यूँ झरे!
प्रीत को, पुकार लूँ,
उनसे बसंत का, उपहार लूँ,
डारे पांवों में महावर, हमें रिझाए!

हर सांझ, यूँ कोई बुलाए!
मेहंदी सजाए, महावर पांवों मेें लगाए!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)

महावर


[सं-स्त्री.] - 1. शुभ अवसरों पर एड़ियों में लगाया जाने वाला गहरा चटकीला लाल रंग 

2. लाख से तैयार किया गया गहरा लाल रंग

Friday, 22 December 2017

मुद्दतों बाद

मुद्दतों बाद....
फिर कहीं खुद से मिल पाया था मैं.......

मन के इसी सूने से आंगन में,
फिर तुम्हारी ही यादों से टकराया था मैं,
बोल कुछ भी तो न पाया था मैं,
बस थोड़ा लड़खड़ाया था मै,
मुद्दतों बाद....
फिर कहीं खुद से मिल पाया था मैं.......

खिला था कुछ पल ये आंगन,
फूल बाहों में यादों के भर लाया था मैं,
खुश्बुओं में उनकी नहाया था मै,
खुद को न रोक पाया था मैं,
मुद्दतों बाद....
फिर कहीं खुद से मिल पाया था मैं.......

अब तलक थी वो मांग सूनी,
रंग हकीकत के वहीं भर आया था मैं,
उन यादो से अब न पराया था मैं,
डोली में बिठा लाया था मैं,
मुद्दतों बाद....
फिर कहीं खुद से मिल पाया था मैं.......

अब वापस न जा पाएंगे वो,
खुद को उस पल में छोड़ आया था मैं,
पल में सदियाँ बिता आया था मैं,
यादों मे अब समाया था मैं,
मुद्दतों बाद....
फिर कहीं खुद से मिल पाया था मैं.......

Sunday, 3 April 2016

घर

घर एक चाहतों का ले सका आज मैं,
मगर घर नही मेरा वो, जिसमें तुम न रहती हो!

घर मेरा वो जहाँ बाल तुम्हारे गीले हों,
मैं देखता हुँ आईना और तुम देख सँवरती हो,
मांग मे तेरी सिंदूर हो और सिंन्दूरी शाम ढ़लती हो,
बिंदिया की जगमगाहट तेरी माथे पे सजती हो,
घर चाहतों का वही जिसे तुम सजाती हो.......

घर मेरा वही जहाँ सपने सजते हों तेरे,
भोर के गीत बज उठते हो मधुर स्वरों में तेरे,
दिन ढ़ल जाती हो रंगीन साये में आँचल के तेरे,
गुँजती हो किलकारियाँ कई स्वरूपों के मेरे,
घर चाहतों का वही तुम सँवारती हो जिसे .......

घर वही जहाँ संग बाल सफेद हों तेरे,
गुजरते लम्हों में सफेद बाल चमकीले हों तेरे,
वक्त की बारीकियाँ झुर्रियों में उभरे तेरे,
कमजोर आँखें तेरी मदहोशियों से देखे मुझे,
घर चाहतों का ये गर जिन्दगी मे तू साथ हो मेरे......

साथ हर कदम रहे जीवन मे तू मेरे,
डूबता ही रहूँ तेरी फूल सी खुशबुओं के तले,
बंद होने से पहले ये आँखे बस देखती हों तुझे,
साँस जीवन की आखिरी बस यही पे हम संग लें,
घर मेरा वो बने जब एक दूसरे की यादों में हम पलें......

घर एक चाहतों का ले सका आज मैं,
मगर घर नही मेरा वो, जिसमें तुम न रहती हो!