Showing posts with label मुद्दत. Show all posts
Showing posts with label मुद्दत. Show all posts

Thursday, 5 November 2020

हैं हालात क्या?

है बात क्या?
पूछे है कोई, दिल से मेरे,
जीर्ण जज़्बातों के हैं,
हालात क्या?

सूनी ये सड़क है, न अन्दर धड़क है,
खोए, गुम-सुम से हैं, बड़े चुप-चुप से हैं, 
ओढ़े हैं, खामोशियाँ!
जागे एहसासों के हैं, हालात क्या?

है बात क्या?
पूछे है कोई, दिल से मेरे, 
जज्ब जज़्बातों के हैं,
हालात क्या?

आता नहीं, अब कोई इस मोड़ तक,
खुशियाँ नहीं, शहर के किसी छोड़ तक,
पसरी है, विरानियाँ!
भीगी साहिलों के हैं, हालात क्या?

है बात क्या?
पूछे है कोई, दिल से मेरे,
जज्ब जज़्बातों के हैं,
हालात क्या?

मुद्दतों हुए, तुम कहाँ, खुल कर हँसे,
आ किसी कैदखाने में, खुद ही हो फ॔से,
गुम है, जिन्दगानियाँ!
लुटे चैनो-भ्रम के हैं, हालात क्या?

है बात क्या?
पूछे है कोई, दिल से मेरे,
जज्ब जज़्बातों के हैं,
हालात क्या?

शर्मसार, कर ना जाएं, कल ये तुम्हें,
रूठकर, मुड़ ना जाएं, हाथों से ये लम्हे,
कैसी है, रुसवाईयाँ!
बीते लम्हातों के हैं, हालात क्या?

है बात क्या?
पूछे कोई, दिल से मेरे,
जीर्ण जज़्बातों के हैं,
हालात क्या?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 22 December 2017

मुद्दतों बाद

मुद्दतों बाद....
फिर कहीं खुद से मिल पाया था मैं.......

मन के इसी सूने से आंगन में,
फिर तुम्हारी ही यादों से टकराया था मैं,
बोल कुछ भी तो न पाया था मैं,
बस थोड़ा लड़खड़ाया था मै,
मुद्दतों बाद....
फिर कहीं खुद से मिल पाया था मैं.......

खिला था कुछ पल ये आंगन,
फूल बाहों में यादों के भर लाया था मैं,
खुश्बुओं में उनकी नहाया था मै,
खुद को न रोक पाया था मैं,
मुद्दतों बाद....
फिर कहीं खुद से मिल पाया था मैं.......

अब तलक थी वो मांग सूनी,
रंग हकीकत के वहीं भर आया था मैं,
उन यादो से अब न पराया था मैं,
डोली में बिठा लाया था मैं,
मुद्दतों बाद....
फिर कहीं खुद से मिल पाया था मैं.......

अब वापस न जा पाएंगे वो,
खुद को उस पल में छोड़ आया था मैं,
पल में सदियाँ बिता आया था मैं,
यादों मे अब समाया था मैं,
मुद्दतों बाद....
फिर कहीं खुद से मिल पाया था मैं.......

Sunday, 8 May 2016

मुद्दतों गुजरे अफसाने

मुद्दतों हुए गुजरे उस अफसाने को,
इक झूठ ही था वो, हम सच मान बैठे थे जिसको!

छलता ही रहा हर पल मन उस छलावे में,
भटकता ही रहा हर क्षण बदन उस बहकावे में,
टूटा सा इक दर्पण निकला वो अपना सा लगता था जो।

मुद्दतों हुए गुजरे उस अफसाने को,
इक झूठ ही था वो, हम सच मान बैठे थे जिसको!

घुँघरू सा बजता था वो दिल के तहखानों में,
पहचाना सा इक शक्ल लगता था वो अन्जानों में,
टूटा है अब मेरा घुँघरू वो, इस दिल में बजता था जो।

मुद्दतों हुए गुजरे उस अफसाने को,
इक झूठ ही था वो, हम सच मान बैठे थे जिसको!

जाने कितनी बार छला है ये मन इस दुनिया में,
ये पागल दिल भूल जाता है खुद भी को मृगतृष्णा में,
टूटा है अब जाल वो छल का उलझा था इस मन में जो।

मुद्दतों हुए गुजरे उस अफसाने को,
इक झूठ ही था वो, हम सच मान बैठे थे जिसको!