चुप-चुप, गुम-सुम सा रहता हर क्षण!
अक्सर, ये मन!
जाने, क्या-क्या रखा है मन के तहखाने?
सुख-दु:ख के, अणगिण से क्षण!
या कोई पीड़-प्रवण!
क्षणिक मिलन,
या हैं दफ्न!
दुरूह, विरह के क्षण!
चुप-चुप, गुम-सुम सा रहता हर क्षण!
अक्सर, ये मन!
संताप कोई, या, अकल्प सी बात कोई?
शायद, अधूरा हो संकल्प कोई!
कहीं, टूटा हो दर्पण!
बिखरा हो मन,
या हैं दफ्न!
गहरा सा, राज कोई!
चुप-चुप, गुम-सुम सा रहता हर क्षण!
अक्सर, ये मन!
किसने डाले, इस अभिव्यक्ति पर ताले?
जज़्बातों के, ये कैसे हैं प्याले?
गुप-चुप, पीता है मन!
सोती है धड़कन,
या हैं दफ्न!
चीखती, आवाज कोई!
चुप-चुप, गुम-सुम सा रहता हर क्षण!
अक्सर, ये मन!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
बहुत सुन्दर, विचारणीय पोस्ट।
ReplyDeleteआदरणीय मयंक जी, आभारी हूँ । बहुत-बहुत धन्यवाद ।
Deleteबहुत सुन्दर 👏 👏
ReplyDeleteधन्यवाद सुधा बहन।
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