छोड़ो दर्प, पुकार लो, फिर उसे!
जीर्ण हो, या नवीन सा श्रृंगार हो,
नैन से नैन का, चल रहा व्योपार हो,
फिर ये शब्द, क्यूँ मौन हों?
ये प्रेम, क्यूँ गौण हो?
बेझिझक, होंठ ये खोल दो,
पुकार लो, फिर उसे!
गर्भ में समुद्र के, दबी कितनी ही लहर,
दर्प के दंभ में, जले भाव के स्वर,
डूब कर, गौण ही रह गए,
वो लहर, वो भँवर, मौन जो रह गए,
तैर कर, पार वे कब हुए!
उबार लो, फिर उसे!
अतिवृष्टि हो, अल्प सा तुषार हो,
मेघ से मेह का, बरस रहा फुहार हो,
फिर आकाश, क्यूँ मौन हो?
प्रकाश, क्यूँ गौण हो?
बेझिझक, गांठ ये खोल दो,
निहार लो, फिर उसे!
छोड़ो दर्प, पुकार लो, फिर उसे!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
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आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 12.03.2020 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3638 में दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की गरिमा बढ़ाएगी
ReplyDeleteधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
सादर आभार आदरणीय विर्क जी
Deleteअति उत्तम ,बधाई हो
ReplyDeleteशुक्रिया आदरणीय ज्योति जी।
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