वही रंग, वही कैनवास,
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
वही ब्रश,
वही कूचियाँ,
वही मन,
बदल सी जाती है, तो बस,
इक तस्वीर!
शायद, बदल से जाते हैं परिदृश्य!
या शायद, परिप्रेक्ष्य!
ये रंग, ये कैनवास, ये ब्रश, ये कूचियाँ,
निर्जीव से हैं ये सारे,
पर, ये मन!
उकेरता है जो, अपने ही सपन,
फिर, बेवशी में, सच से, फेरता है नयन?
उड़ेलता है रंग,
और बेख्याल हो, उकेरता है वो,
इक तस्वीर!
शायद, पूर्णताओं में छुपी रिक्तता,
या शेष, कोई चाह!
यूँ जमीं पे इन्द्रधनुष, उतरते क्यूँ यहाँ?
रंगों में, ढ़लती क्यूँ धरा,
और, ये मन!
क्यूँ उसी को, सोचता है मगन,
बेजार हो, अश्क में, भिगोता वो नयन?
संजोता है सपन,
और रिक्तताओं में, ढूंढता है वो,
इक तस्वीर!
वही रंग, वही कैनवास,
वही ब्रश,
वही कूचियाँ,
वही मन,
बदल सी जाती है, तो बस,
इक तस्वीर!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शनिवार 13 जून जून 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteआभारी हूँ दी
Deleteबहुत खूब।
ReplyDeleteसभी बिल्कुल वैसा ही है।
प्रेरक शब्दों हेतु बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय
Deleteसुन्दर सृजन।
ReplyDeleteहृदयतल से आभार
Deletewow मेरे पास शब्द ही नहीं है | बहुत पसंद आयी शुक्रिया
ReplyDeleteआपका हार्दिक अभिनन्दन, प्रिय अंजान मित्र
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